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________________ प्रस्तावना साहित्यिक गद्य की गरिमा भी कथानकों और गद्य काव्यों में दृष्टिगोचर होती है । फिर भी, वैदिक गद्य की तुलना में इसमें कई एक न्यूनताएं साफ दिखलाई दे जाती हैं। पद्य की भी जिस रचना-तकनीक को लौकिक साहित्य में अङ्गीकार किया गया है, वह, वैदिक छन्द-तकनीक से ही प्रसूत प्रतीत होती है। पुराणों में और रामायण-महाभारत में सिर्फ 'श्लोक' की ही बहुलता है । परवर्ती लौकिक साहित्य में, वर्णनीय विषय-वस्तु को लक्ष्य करके छोटे-बड़े कई प्रकार के नवीन छन्दों का प्रयोग किया गया है, जिनमें, लघु-गुरु के विन्यास पर विशेष बल दिया गया है । कुल मिला कर देखा जाये, तो वैदिक पद्य साहित्य में जो स्थान गायत्री, त्रिष्टुप्, तथा जगती छन्दों के प्रचलन को मिला हुआ था, वही स्थान उपजाति, वंशस्थ और वसन्ततिलका जैसे छन्द, लौकिक साहित्य में बना लेते हैं । संस्कत साहित्य में, सिर्फ धर्मग्रन्थों की ही अधिकता है, ऐसी बात नहीं है। भौतिक जगत के साधन भूत 'अर्थ' और 'काम' के वर्णन की ओर भी लौकिक साहित्यकारों का ध्यान रहा है । अर्थशास्त्र का व्यापक अध्ययन करने के लिए और राजनीति का पण्डित बनने के लिये कौटिल्य का अकेला अर्थशास्त्र ही पर्याप्त है । इसके अलावा भी अर्थशास्त्र को लक्ष्य करके लिखा गया विशद साहित्य संस्कृत में मौजद है । कामशास्त्र के रूप में लिखा गया वात्स्यायन का ग्रन्थ, गृहस्थ जीवन के सुख-साधनों पर व्यापक प्रकाश डालता है। इसी के आधार पर कालान्तर में अनेकों ग्रन्थों की सर्जनाएं हुईं । 'मोक्ष' को लक्ष्य करके जितना विशाल साहित्य संस्कृत भाषा में लिखा गया, उसकी बराबरी करने वाला विश्व की भाषा में दूसरा साहित्य मौजूद नहीं है। · इन चारों परम-पुरुषार्थों के अलावा विज्ञान, ज्योतिष, वैद्यक, स्थापत्य और पशु-पक्षियों के लक्षणों से सम्बन्धित अगणित ग्रन्थ/रचनाएं, संस्कृत-साहित्य की विशालता और व्यापकता का जीवन्त उदाहरण बनी हुई हैं। वस्तुतः, संस्कृत के श्रेयः और प्रेयः शास्त्रों की विशाल संख्या को देख कर, पाश्चात्य विद्वानों द्वारा व्यक्त की गई घटनाएं और उनके उद्गार कहते हैं--संस्कृत-साहित्य का जो अंश मुद्रित होकर अब तक सामने आया है, वह ग्रीक और लेटिन भाषाओं के सम्पूर्णसाहित्यिक ग्रन्थों के कलेवर से दुगुना है । इस प्रकाशित साहित्य से अलग, जो साहित्य अभी पाण्डुलिपियों के रूप में अप्रकाशित पड़ा है, और जो साहित्य विलुप्त हो चुका है, उस सबकी गणना कल्पनातीत है। भारतीय सामाजिक परिवेष, मूलतः धार्मिक है। फलतः भारतीय संस्कृति भी धार्मिक आचार-विचारों से प्रोत-प्रोत है। आस्तिकता इस का धरातल है । इसका उन्नततम स्वरूप, स्वयं को सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् बना लेने में, अथवा ऐसे ही परमस्वरूप में अटूट प्रास्था प्रतिष्ठापित करने में दिखलाई पड़ता है। भारतीय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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