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उपमिति भव-प्रपंच कथा
गणित के कुछ अकाट्य तर्कों के बल पर, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने इसका जो रचना - काल बतलाया है, वह, विक्रम से कम से कम छः हजार वर्ष पूर्व का ठहरता है । विश्व में, किसी भी भाषा का ऐसा साहित्य नहीं है, जो प्राज से आठ हजार वर्ष पूर्व का हो। इस प्राचीनता के बावजूद, संस्कृत साहित्य की रसवती धारा, आज तक अविच्छिन्न रूप से सतत प्रवाहशील बनी हुई है । विश्व के अन्य साहित्यों के साथ, अविच्छिन्नता की कसौटी पर संस्कृत साहित्य को जांचा-परखा जायेगा, तो यह साहित्य सबसे महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगा ।
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वेदों की मंत्र - संहिताओं की रचना के बाद इनकी व्याख्या का समय आता है । इस समय के ग्रन्थों को 'ब्राह्मरण' नाम से कहा गया है । ब्राह्मणों के बाद ‘आरण्यक' और फिर 'उपनिषद्' ग्रन्थ रचे गये इनके बाद का काल, स्पष्ट रूप से वैदिक और लौकिक साहित्य के साहित्य का 'संधिकाल' माना जा सकता है । जिसमें, स्मृतियों, पुराणों और रामायण व महाभारत जैसे प्रार्षकाव्यों की रचनाओं को लिया जा सकता है । आशय यह है कि महर्षि वाल्मीकि की रामायण से पूर्व के साहित्य को हम 'वैदिक साहित्य' और रामायण से लेकर आज तक के संस्कृत साहित्य को 'लौकिक - साहित्य' के नाम से अभिहित कर सकते हैं । विषय, भाषा, भाव आदि अनेकों दृष्टियों से लौकिक साहित्य का विशिष्ट महत्त्व है ।
वैदिक साहित्य की यह विशेषता है कि उसमें, विभिन्न देवतानों को लक्ष्य करके यज्ञ-याग आदि के विधान और उनकी कमनीय स्तुतियां संजोयी गई हैं । इसलिये, इस साहित्य को मुख्यतः धर्म-प्रधान साहित्य कहा जाता है । जबकि, लौकिक संस्कृत साहित्य, मुख्यतः लोकवृत्त प्रधान है । इसकी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की ओर विशेष प्रवृत्ति हुई है । जिससे धर्म की व्याख्या / वरना में, वैदिक साहित्य का विशेष प्रभाव स्पष्ट होने पर भी, कई मायनों में नूतनता उजागर हुई है । ऋग्वेद काल में, जिन देवी-देवताओं की प्रतिष्ठा थी, प्रमुखता थी, वे, लौकिक साहित्य की परिधि में आकर गौरण ही नहीं बन जाते, वरन्, उनमें से कुछ के स्थान पर ब्रह्मा, विष्णु और शिव जैसे देवों की उपासना को अधिक महत्त्व मिल
जाता है ।
तैत्तिरीय, काठक और मैत्रायणी संहिताओं से, गद्य की जिस गरिमा का प्रवर्त्तन होता है, वह गरिमा, ब्राह्मण ग्रन्थों में प्रतिष्ठित होती हुई उपनिषद् काल तक, अपना उदात्त स्वरूप ग्रहरण कर लेती है । लौकिक साहित्य का उदय होते ही, गद्य का इस हद तक ह्रास होने लगता है कि ज्योतिष् और चिकित्सा जैसे वैज्ञानिक विषयों तक में, छन्दोबद्ध पद्य - परम्परा अपना स्थान बना लेती है । व्याकरण और दर्शन के क्षेत्र में, गद्य का अस्तित्व रहता जरूर है, किन्तु यहाँ पर, वैदिक गद्य जैसा प्रसादसौन्दर्य विलीन हो जाता है । और, उसका स्थान दुर्बोधता एवं दुरूहता ग्रहरण कर लेती है ।
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