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________________ प्रस्तावना के कारण इसका नाम 'संस्कृत' रखा गया, ऐसा प्रतीत होता है। क्योंकि, वाल्मीकि रामायण के उक्त उदाहरण से ऐसा अनुमानित होता है कि वाल्मीकि के समय में, प्राकृत आदि का उदय, लोक-व्यवहार में प्रचलित भाषा के रूप में हो चुका था। धीरे-धीरे, ये जन-साधारण में प्रधानता प्राप्त करने लगी हों तब, इन भाषाओं से पृथकता प्रदर्शित करने के लिए इसे 'संस्कृत' नाम दे दिया गया। दण्डी (सप्तम शतक) ने तो स्पष्ट रूप से प्राकृत से इसका भेद प्रदर्शित करने के लिए 'संस्कृत' शब्द का प्रयोग 'देववाणी' के लिए किया है ।1।। भाषा-शास्त्रियों का मत है कि-देववाणी में, प्राचीन काल में, प्रकृतिप्रत्यय विभाग नहीं था । सम्भव है, तब उसका प्रतिपद पाठ आज की वैज्ञानिक विधि जैसा न दिया जाता हो। इससे देववाणी के जिज्ञासुओं को न केवल कठिन श्रम करना पड़ता रहा होगा, बल्कि, अधिक समय भी उन्हें देना पड़ता होगा। इसी कारण से, देवताओं ने, इसके अध्ययन-ज्ञान की सुगम और वैज्ञानिक परिपाटी निर्धारित करने के लिये, देवराज इन्द्र से प्रार्थना की होगी । और, तब इन्द्र ने, शब्दों को बीच से तोड़ कर, उनमें प्रकृति-प्रत्यय आदि के विभाग की सरल अध्ययन प्रक्रिया सुनिश्चित की होगी। वाल्मीकि, पाणिनि आदि के द्वारा प्रयुक्त 'संस्कृत' शब्द, इसी संस्कार पर आधारित प्रतीत होता है। वैयाकरणों की यह भी मान्यता है कि देवराज इन्द्र द्वारा, इसकी सुगम, वैज्ञानिक एवं व्यावहारिक पद्धति निर्धारित करने, और देवों की भाषा होने के कारण, इसे 'देववाणी' या 'दैवी वाक्' कहा जाता था। लोक-व्यवहार में आने पर, इसका जो संस्कार, पाणिनि (500 ई. पूर्व) से लेकर पतञ्जलि (200 ई. पूर्व) तक लगातार चलता रहा, उसी से इसे 'संस्कृत' नाम मिला। इन संस्कर्ताओं/वैयाकरणों ने, देववाणी का जो संस्कार किया, उसका, यह अर्थ कदापि नहीं लेना चाहिये कि पाणिनि से पूर्व काल में, इसका स्वरूप असंस्कृत अवस्था में था । क्योंकि, व्याकरण का लक्ष्य, भाषा का निर्माण, या उसकी संरचना करना नहीं होता, अपितु, उसके शब्दों का शुद्ध स्वरूप निर्धारण करना होता है । संस्कृत के शब्दों का अस्तित्व, पाणिनि से पहिले था ही, इन्होंने तो मात्र यह निर्देश किया कि 'षष' के स्थान पर 'शश', 'पलाष' के स्थान पर 'पलाश' और 'मंजक' के स्थान पर 'मञ्चक' का प्रयोग, शुद्ध शब्द-प्रयोग है । पश्चिमी विद्वानों की दृष्टि में, मिश्र देश का साहित्य सबसे प्राचीन माना जाता है। किन्तु, उसकी प्राचीनता, विक्रम से मात्र ४००० वर्ष पूर्व तक जा सकी है। जबकि विज्ञों ने संस्कृत की प्रथम रचना ऋग्वेद को हजारों वर्ष प्राचीन माना है। ऋग्वेद के रचनाकाल के विषय में, विद्वानों ने पर्याप्त मतभेद है। किन्तु, १. संस्कृतं नाम दैवीवाक् अन्वाख्याता महर्षिभिः । -काव्यादर्श-१/३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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