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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
संस्कृत के उन तमाम शब्दों का उल्लेख भी निरुक्त में किया गया है, जो संस्कृत से प्रान्तीय भाषाओं में, या तो रूपान्तरित हो चुके थे, या फिर उन्हें विशिष्ट प्रयोगों में काम लिया जाता था ।1 पाणिनि ने 'प्रत्यभिवादेऽशूद्रे' सूत्र के उदाहरण के रूप में 'आयुष्मान् एधि देवदत्त' जैसे उदाहरणों के साथ-साथ, अलग-अलग क्षेत्रों में प्रयुक्त और रूपान्तरित शब्दों एवं मुहावरों का भी पर्याप्त प्रयोग किया है । जिससे यह स्वत: प्रमाणित हो जाता है कि निरुक्तकार की ही भांति पाणिनि ने भी 'संस्कृत' को 'भाषा' माना है ।
भारत के अनेकों संस्कृत प्रेमी राजाओं ने, यह नियम बना रखा था कि उनके अन्त:पुर में संस्कृत का प्रयोग किया जाये । राजशेखर ने इस प्रसंग की प्रामाणिकता के लिये साहसाङ्कपदवीधारी उज्जयिनी नरेश विक्रम का उल्लेख किया है । और, इसी सन्दर्भ में ग्यारहवीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध राजा धारानरेश भोज का नाम भी लिया जा सकता है। ये सारे प्रमाण स्वत: बोलते हैं कि संस्कृत, मात्र ग्रंथों में प्रयुक्त की जाने वाली भाषा नहीं थी, अपितु वह 'लोक-भाषा' थी। बाद में 'लोक' शब्द से जन-साधारण का बोध न करके, मात्र 'शिष्ट' व्यक्तियों का ही बोध किया जाने लगा, ऐसा प्रतीत होता है ।
वाल्मीकि रामायण के सुन्दरकाण्ड में, सीताजी के साथ, किस भाषा में बातचीत की जाये ? यह विचार करते हुए, हनुमान के मुख से, वाल्मीकि ने कहलवाया है-'यदि द्विज के समान, मैं संस्कृत वाणी बोलूगा, तो सीताजी मुझे रावण समझकर डर जायेंगी।' वस्तुत:, भाषा शब्द, उस बोली के लिए प्रयुक्त होता है, जो लोक-जीवन के बोलचाल में प्रयुक्त होती है। महर्षि यास्क ने और महर्षि पाणिनि ने भी, इसी अर्थ में 'भाषा' शब्द का प्रयोग किया है। सिर्फ एक बात अवश्य गौर करने लायक है। वह यह कि 'भाषा' के अर्थ में 'संस्कृत' शब्द का प्रयोग, इन पुरातन-ग्रंथों में नहीं मिलता।
वाक्य-विश्लेषण, तथा उसके तत्त्वों की समीक्षा करना, किसी भाषा का संस्कार कहा जाता है । प्रकृति, प्रत्यय आदि के पुनः संस्कार द्वारा 'संस्कृत' होने
१. शवतिर्गतिकर्मा कम्बोजेष्वेव भाष्यते । विकारमस्यार्थेषु भाष्यन्ते शव इति । दातिर्लव___ नार्थे प्राच्येषु, दात्रमुदीच्येषु ।
-निरुक्त-२/२ काव्यमीमांसा-पृष्ठ-५०
संस्कृत शास्त्रों का इतिहास-पं. बलदेवजी उपाध्याय, पृष्ठ ४२८-४३, काशी-१६६६ ४. यदि वाचं प्रदास्यामि द्विजातिरिव संस्कृताम् । रावणं मन्यमाना मां सीता भीता भविष्यति ।
-वाल्मीकि रामायण, सुन्दरकाण्ड ५-१४ ५. भाषायामन्वध्यायश्च-निरुक्त १-४ ६. भाषायां सदवसश्रुवः-अष्टाध्यायी-३/२/१०८
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