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________________ प्रस्तावना संज्ञा पदों के रूप में, प्रायः प्राकृत शब्दों को ही संस्कृत जैसा रूप देकर प्रयोग करते थे। कई स्थानों पर, क्रियापदों में भी अशुद्धियाँ देखी जा सकती हैं। बहुत कुछ ऐसा ही अन्तर, रामायण में देखने को मिल जाता है । ब्राह्मणों की शुद्ध वाणी और जनसाधारण की संस्कृत भाषा में स्पष्ट अन्तर पाया जाता है । महाभाष्यकार पतञ्जलि ने अपने भाष्य में 'सूत' शब्द की व्युत्पत्ति पर, एक वैयाकरण और एक सारथी के बीच हुए विवाद का पाख्यान दिया है। महर्षि पाणिनि ने भी, ग्वालों की बोली में प्रचलित शब्दों का, और द्य त-क्रीड़ा सम्बन्धी प्रचलित शब्दों का भी उल्लेख किया है । बोल-चाल में प्रयोग आने वाले अनेकों मुहावरों को भी पाणिनि ने भरपूर स्थान दिया है । जैसे--दण्डादण्डि, केशा-केशि, हस्ता-हस्ति आदि । महाभाष्य में भी, ऐसे न जाने कितने प्रयोग मिलेंगे, जिनका प्रयोग आज भी ग्राम्य-बोलियों तक में मिल जायेगा। महर्षि कात्यायन के समय, संस्कृत में नये-नये शब्दों का समावेश होने लगा था। नये-नये मुहावरों का प्रयोग होने लगा था । जैसे-पाणिनि ने 'हिमानी' और 'अरण्यानी' शब्दों को स्त्रीलिङ्ग-वाची शब्दों के रूप में मान्यता दी थी। किन्तु, कात्यायन के समय तक, ऐसे शब्दों का प्रचलन, कुछ मायनों में रूढ़ हो चुका था। या फिर उनका अर्थ-विस्तार हो चुका था। उदाहरण के रूप में, पाणिनि ने 'यवनानी' शब्द का प्रयोग 'यवन की स्त्री' के लिये किया था। यही शब्द, कात्यायन काल में 'यवनी लिपि' के लिए प्रयुक्त होने लगा था । पाणिनि का समय, विक्रम पूर्व छठवीं शताब्दी, कात्यायन का समय विक्रम पूर्व चौथी शताब्दी, और पातञ्जलि का समय विक्रम पूर्व दूसरी शताब्दी माना गया है । पाणिनि से पूर्व, महर्षि यास्क ने 'निरुक्त' की रचना की थी। निरुक्त में, वेदों के कठिन शब्दों की व्युत्पत्तिपरक व्याख्या की गई है। निरुक्तकार की दृष्टि में, सामान्यजनों की बोली, वैदिक संस्कृत से भिन्न थी। इसे इन्होंने 'भाषा' नाम दिया। और, वैदिक कृदन्त शब्दों की जो व्युत्पत्ति बतलाई, उसमें, लोक-व्यवहार में प्रयोग आने वाले धातु-शब्दों को आधार माना । m १. एच. याकोबी-डस रामायण-पृष्ठ-११५ २. २-४-५६ अष्टाध्यायी सूत्र पर भाष्य, . ३. करोतिरभूत प्रादुर्भावे दृष्टः, निर्मलीकरणे चापि विद्यते । पृष्ठं कुरु, पादौ कुरु, उन्मृदानेति गम्यते। -महाभाष्य १-३-१ ४. हिमारण्ययोमहत्त्वे । -१-१-११४ पर वातिक ५. यवनाल्लिप्याम्-४/१/१२४ पर वार्तिक, ६. भाषिकेभ्यो धातुभ्यो नगमाः कृतो भाष्यन्ते । -निरुक्त २/२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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