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________________ प्रस्तावना वान् शब्द भण्डार हैं, जन-मन की बातों का, उनकी प्रवृत्तियों का और सरल-सादगीपूर्ण जिन्दगी जीने की कला के बहुरंगी शब्द-चित्र भी हैं। भारत और चीन के प्रायः द्वीप, आज 'हिन्द-चीन' के नाम से जाने जाते हैं। परन्तु १३वीं और १४वीं शताब्दी से पहिले, इन पर चीन का कोई भी प्रभुत्व नहीं था । सुदूरपूर्व में यहाँ जङ्गली जातियां रहती थीं। किन्तु, यहाँ पर स्वर्ण की खान थी, इसी आकर्षणवश जिन भारतीयों ने इसकी खोज की थी, उन्होंने इसे 'स्वर्णभूमि' या 'स्वर्णद्वीप' का नाम दिया था । सम्राट अशोक के शासनकाल में यहाँ बुद्ध का संदेश पहुंचा । विक्रम की शुरुआत से चौदहवीं शताब्दी तक, यहाँ पर अनेकों भारतीय राज्य स्थापित रहे । और, राजभाषा के रूप में संस्कृत का व्यावहारिक उपयोग होता रहा । मनुस्मृति में वर्णित शासन व्यवस्था के अनुरूप 'काम्बोज' का शासन प्रबन्ध चला । आर्यावर्त की वर्णमाला और साहित्य के सम्पर्क के कारण, यहाँ की क्षेत्रीय बोलियों ने, भाषा का स्वरूप ग्रहण किया और धीरे-धीरे, वे साहित्य की सजिकाएं बन गईं। इस सारे के सारे साहित्य की मौलिकता पूर्णतः भारतीय थी। फलतः, भारतीय (आर्यावर्तीय) वर्णमाला पर आधारित काम्बोज की 'मेर', चम्पा की 'चम्म' और जावा की 'कवि' भाषाओं के साहित्य में, संस्कृत साहित्य से ग्रहण किया गया उपादान कल्याणकारी अवदान माना गया। रामायण और महाभारत के आख्यान जावा की कवि भाषा में आज भी विद्यमान हैं । बाली द्वीप में वैदिक मंत्रों का उच्चारण और संध्या वन्दन आदि का अवशिष्ट, किन्तु विकृत अंश आज भी देखा जा सकता है । मंगोलिया के मरुस्थल में भी भारतीय साहित्य पहुंचा। जिसका आंशिक अवशिष्ट, वहाँ की भाषा में महाभारत से जुड़े अनेकों नाटकों के रूप में आज भी पाया जाता है। ये सारे साक्ष्य, स्पष्ट करते हैं कि इन देशों के जनसाधारण की मूक भावनाओं को मुखर बनाने में, संस्कृत साहित्य ने उचित माध्यम उन्हें प्रदान किये, और, उनके सामाजिक संगठन एवं व्यवस्था को नियमित/संयमित बनाकर, उनकी बर्बरता से उन्हें मुक्त किया, सभ्य और शिष्ट बनाया। नैराश्य में से आशा का, विपत्ति में से सम्पत्ति का, तथा दुःख में से सुख का उद्गम होना अवश्यम्भावी है । भारतीय तत्त्वज्ञान की आधारभूमि यही मान्यता है। व्यक्तित्व के विकास में जीवन का अपना निजी मूल्य है, महत्त्व है । फिर भी, किसी मानव की वैयक्तिक पूर्णता में और उसकी अभिव्यक्ति में, व्यक्ति का जीवन, साधन मात्र ही ठहरता है । सुख और दुःख, समृद्धि और व्यद्धि, राग और द्वेष, मैत्री और दुश्मनी के परस्पर संघर्ष से, जो अलग-अलग प्रकार की परिस्थितियां बनती हैं, उन्हीं का मार्मिक अभिधान 'जीवन' है। इसकी समग्र अभिव्यंजना, न तो दुःख का सर्वाङ्ग परित्याग कर देने पर सम्भव हो पाती है, और न ही सुख का सर्वतोभावेन स्वीकार कर लेने पर उसकी पूर्ण व्याख्या की जा सकती है। इसीलिए, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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