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________________ प्रस्ताव १ : पोठबन्ध १२५ [ ३४ ] सद्बुद्धि के साथ वार्ता पहले कथा-प्रसंग में जो बात विस्तार से कही गई है उस पर संक्षेप में यहाँ विचार करते हैं:- "उस निष्पुण्यक ने एक दिन निराकुलता से सद्बुद्धि के साथ विचार-विमर्श किया। उसने सद्बुद्धि से कहा 'भद्र ! मुझे आश्चर्य है कि अब मेरा शरीर और मन इतना प्रमुदित रहता है, इसका क्या कारण है ?' सद्बुद्धि.ने उत्तर में कहा---'कुत्सित भोजन के प्रति तेरी लोलुपता की समाप्ति और विमलालोक अंजन आदि तीनों पथ्य एवं हितकारी औषधियों के नियमित सेवन से ही तुझे यह सफलता प्राप्त हुई है। इसी प्रसंग को सद्बुद्धि ने युक्तिपूर्वक उसे समझाया ।" यही बात इस प्राणी के साथ भी पूर्णतया घटित होती है। सबुद्धि से प्रशम सुख सद्बुद्धि के साथ विचार-विमर्श करने से इस प्राणी को यह बात विशेष रूप से ध्यान में आती है कि मेरे शरीर और मन में निवृत्ति स्वरूप स्वाभाविक सुख जो मुझे अभी प्राप्त हुआ है उसका प्रमुख कारण धन-विषय-कलत्रादि पर-पदार्थों पर आसक्ति का त्याग और ज्ञान दर्शन चारित्र के प्रति आदरभाव एवं सम्यक् आचरण ही है। यद्यपि पूर्व संस्कारों के कारण यह जीव विषयादि में प्रवृत्ति करता है तथापि उसमें सद्बुद्धि जागृत रहने के कारण वह इस प्रकार विचार करता रहता है:-'मेरे जैसे जीव को इस प्रकार का आचरण करना न युक्तिसंगत है और न शोभास्पद है।' इन विचारों के फलस्वरूप उसका विषयादि पदार्थों पर आसक्तिभाव नहीं होता और अनासक्त होने के कारण उनके प्रति तीव्र आकर्षण या आग्रह नहीं होता । यही कारण है कि इस जीव को प्रशम सुख प्राप्त होता है। सद्बुद्धि ने इस प्रकार इस प्राणी को युक्ति पुरस्सर समझाया, ऐसा समझे । [ ३५ ] पूर्ण त्याग के प्रति सचेष्ट कथा-प्रसंग में कहा जा चुका है:-"प्राप्त हुए प्रशान्त सुख के रस में आनन्दित होकर उस निष्पुण्यक ने सद्बुद्धि परिचारिका के सन्मुख इस प्रकार कहा:-'यदि ऐसी बात है तो मैं उस कुत्सित भोजन का सर्वथा त्याग ही कर देता हूँ जिससे मुझे उच्चकोटि का सुख भली प्रकार मिल सके ।' निष्पुण्यक की बात सुनकर सदबुद्धि ने उत्तर दिया ... 'बात तो बिल्कुल ठीक है, पर उसका त्याग सम्यक् प्रकार से समझ कर करना जिससे छोड़ने के बाद पूर्व प्रेमवश तुझे उसके लिए पहले जैसी आकुलता-व्याकुलता न हो। एक बार उसका त्याग करने के बाद फिर से उस पर * पृष्ठ ६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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