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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
बाद प्राचार्यदेव इस प्राणी को सदुपदेश देते हैं: -'जब तक यह जीव विपरीत ज्ञान के कारण दुःखदायी धन-विषय-कलत्रादि में सुख का आरोप करता है. और सुखदायी वैराग्य, तप, संयम आदि में दुःख का आरोप करता है तब तक ही उसका दुःख के साथ सम्बन्ध होता है। जब यह जीव भलीभांति जान जाता है कि विषयभोगों की ओर प्रवृत्ति ही दुःख है और धनादि अाकांक्षाओं को निवृत्ति ही सुख है तब उसकी समस्त कामनाएँ नष्ट हो जाने से उसे निराकुल स्वाभाविक सुख प्राप्त होता है और वह सतत आनन्द में रहता है। अब मैं तेरे परमार्थ को बात कहता हूँ:-- 'जसे-जसे यह जीव निःस्पृही होता जाता है वैसे-वैसे उसमें पात्रता (योग्यता) पाती जाती है । पात्रता आने पर सब सम्पदाएँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं । जैसे-जसे प्राणी सम्पदाभिलाषी होता है वैसे-वैसे उसकी अयोग्यता का निश्चय करके सम्पदाएं भी उससे बहुत दूर चली जाती हैं। फलतः तुझे भी दृढ़ निश्चय कर, सांसारिक पदार्थों के उपभोग की ओर अभिलाषा नहीं रखनी चाहिये । यदि तू वास्तव में इस प्रकार का आचरण करेगा तो तुझे कभी स्वप्न में भी मानसिक और शारीरिक पीडा की गन्ध भी नहीं मिलेगी।' गुरु महाराज के उक्त उपदेश को जीव अमृत के समान ग्रहण करता है । अब इस प्राणी को सद्बुद्धि प्राप्त हो गई है ऐसा समझकर धर्म गुरु अपने हृदय में निश्चय करते हैं कि अब यह जीव विपरीत मार्ग पर कभी नहीं जाएगा। इन विचारों से धर्मगुरु इस जीव के प्रति निश्चिन्त हो जाते हैं। पीडा : गुरण और प्रमोद
सद्बुद्धि प्राप्त होने पर यद्यपि यह जीव श्रावक अवस्था में रहता हुआ विषयों का उपभोग करता है, धनादि ग्रहण करता है तथापि इन पदार्थों के साथ सम्बन्ध होने पर भी गाढानुराग न होने से ये पदार्थ अतृप्ति या असंतोष के कारण नहीं बनते थे। ज्ञान दर्शन चारित्र के प्रति चित्त का अनुराग होने के कारण उसे जो भी और जितने भी परिमाण में धनादि पदार्थ प्राप्त होते थे उसी में वह जीव संतुष्ट रहता था, अर्थात् उतनी ही सामग्री उसके लिये संतोषदायक थो । सद्बुद्धि के प्रभाव से वह ज्ञान दर्शन चारित्र की विशिष्ट प्राप्ति के लिए जितना प्रयत्न करता था, उतना अब वह धनादि की प्राप्ति के लिए नहीं करता था। फलस्वरूप उसके रागादि भावरोगों में नवीन वृद्धि नहीं होती थी और पुराने भाव-रोग क्षीण होते जाते थे। ऐसी अवस्था में भी कभी-कभी पूर्वोपाजित कर्मों की परिणति के कारण शारीरिक और मानसिक पीडाएँ उत्पन्न हो जाती किन्तु तीव्र अनुबन्ध नहीं होने के कारण अधिक समय तक स्थिर नहीं रहती । इस कारण से इस जीव को सन्तोष के गुणों और असन्तोष के दोषों का अन्तर समझ में आने लगा और उत्तर गुरगों की प्राप्ति से उसका चित्त प्रमुदित रहने लगा।
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