________________
प्रस्ताव १ : पीठबन्ध
१२३
व्यस्त रहते हैं, अतएव सर्वदा तेरे निकट रहकर तुझे अशुभ कर्तव्यों से रोकना हमारे लिए संभव नहीं है । वस्तुतः जब तक तेरी स्वयं की सद्बुद्धि जागृत नहीं होगी तब तक जिसको हम त्याग करने का कहते हैं उसी पर तेरी आसक्ति होने के कारण होने वाली अनर्थ-परम्परा रोकी नहीं जा सकती। स्वयं की सद्बुद्धि ही एक ऐसी वस्तु है जो अन्य की प्रेरणा की अपेक्षा रखे बिना ही केवल स्वयं के प्रयासों से ही जीव को अशुभ प्रवृत्तियों से विमुख कर सकती है और इसी से तू भी अनर्थ-परम्परा से मुक्त हो सकता है। सद्बुद्धि की महत्ता
___ यह सुनकर जीव ने कहा-भगवन् ! यह सद्बुद्धि तो मुझे आपके प्रसाद से ही प्राप्त हो सकती है, अन्यथा नहीं। यह सुनकर गुरुदेव ने कहा-भद्र ! मैं तुझे सद्बुद्धि देता हूँ। हमारे जैसों के तो सद्बुद्धि वचनाधीन ही रहती है। यह ध्यान रखना चाहिये कि सद्बुद्धि प्रदान करने पर भी जो पुण्यशाली प्राणी होते हैं वह उन्हीं को अच्छी तरह फलती है, अन्य भाग्यहीनों को नहीं । इसका कारण यह है कि पुण्यशाली प्राणी ही उसके प्रति आदरभाव रखते हैं, अन्य प्राणी नहीं । इस सद्बुद्धि के अभाव में ही देहधारियों को समस्त प्रकार के अनर्थकारी कष्ट होते हैं। वस्तुत: विश्व में समस्त प्रकार के कल्याणकारी सुखों की परम्परा का आधार सबृद्धि ही है । जो महात्मा इस सद्बुद्धि को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं वे ही वास्तव में सर्वज्ञदेव की आराधना करते हैं, अन्य नहीं। किसी भी प्रकार से तुझे सद्बुद्धि प्राप्त हो इसीलिये हम विस्तृत एवं विशेष उपदेश द्वारा तुझे समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं। यदि सद्बुद्धि रहित प्राणियों को कदाचित् व्यवहार से ज्ञान दर्शन चारित्र की प्राप्ति हो भी जाए और किन्हीं को ज्ञानादि प्राप्त न भी हो तो भी कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता। कारण यह है कि इस प्रकार का व्यावहारिक (छिछला) ज्ञान स्वकार्य सिद्ध नहीं कर सकता। अधिक क्या कहूँ ? सद्बुद्धि रहित पुरुष और पशु में कोई अन्तर नहीं होता। वस्तुतः यदि तू दुःख से घबराता है और सच्चे सुख की अभिलाषा रखता है तो हमारे द्वारा प्रदत्त इस सद्बुद्धि को प्रयत्नपूर्वक सुरक्षित रखना । तू यदि इस सद्बुद्धि को सम्यक् प्रकार से प्रादर के साथ सुरक्षित रख सका तो ऐसा हम मान लेंगे कि, तूने प्रवचन की आराधना की, त्रिभुवनपति सर्वज्ञ को बहुमान दिया, हमको सन्तुष्ट किया, लोकोत्तर वाहन (मार्ग) स्वीकार किया, लोक-संज्ञा (जडरुचि) का त्याग किया, सद्धर्म का आचरण किया और भव समुद्र से प्रात्मा को पार कर लिया। ऐसा ही तू भी समझ लेना। इच्छा और प्राप्ति का परस्पर सम्बन्ध
सद्धर्माचार्य के ऐसे वचनामृत के प्रवाह से इस जीव का हृदय प्रफुल्लित हो गया और उसने प्राचार्य के वचनों को प्रमुदित हृदय से स्वीकार किया। इसके
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org