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________________ १२२ उपमिति-भव-प्रपंच कथा अनुभव होने लगा और उसके आनन्द में बढ़ोतरी होने लगी।" ये ही बातें जीव के साथ भी सम्यक् प्रकार से घटित होती हैं, जो इस प्रकार हैंस्वच्छ हृदय से स्वीकृति __ जैसे अन्धा आदमी दौड़ता हा दीवार अथवा थंभे से टकराकर, चोट खाकर वेदना से विह्वल हो जाता है और अपनी व्यथा को दूसरों के सामने रो-रोकर कहता है वैसे ही यह जीव भी करता है। धर्माचार्य द्वारा निषिद्ध कार्यों को करने के फलस्वरूप उसे अनेक विपदाओं का अनुभव होने पर उसे गुरुवचनों पर विश्वास होता है और वह अपने अनेक प्रकार के कष्टों का गुरु के सन्मूख उल्लेख करता हा कहता है-भगवन् ! आपके सदुपदेश के अनुसार जब मैं चारी से कोई वस्तु ग्रहण नहीं करता, राज्यविरुद्ध कोई कार्य नहीं करता, वेश्या और परस्त्रीगमन आदि कोई दुष्कृत्य नहीं करता, इसी प्रकार के धर्म और लोक विरुद्ध कोई आचरण नहीं करता और महारम्भ (हिंसा) तथा परिग्रह में अनुराग नहीं रखता तब तो सब लोग मुझे साधु पुरुष समझते हैं, मुझ पर विश्वास करते हैं और मेरी प्रशंसा करते हैं । ऐसे समय में शारीरिक परिश्रमजन्य दुःख भी मुझे दुःख प्रतीत नहीं होता, हृदय में भी स्वस्थता और प्रसन्नता प्रतीत होती है। 'सद्धर्माचरण करने से सद्गति प्राप्त होती है' इन विचारों से मेरा चित्त आनन्दित हो जाता है। परन्तु, जब अशुभ प्रवृत्ति करते समय आपकी ओर से किसी प्रकार की रोक-टोक नहीं होती अथवा आपकी निषेधाज्ञा का यह सोचकर कि 'आपको क्या मालूम पड़ेगा' उल्लंघन कर निर्भयता के साथ जब मैं धन-विषय-कलत्रादि पर आसक्ति रखता हुआ तस्करी से धनादि पदार्थ ग्रहण करता हूँ, काम-लाम्पट्य के कारण वेश्यादि से गमन करता हूँ, इसी प्रकार के आप द्वारा निषिद्ध धर्म या लोक विरुद्ध कृत्य करता हूँ तब लोगों की निन्दा, राज्य की ओर से दण्ड तथा सर्वस्वहरण, शारीरिक खेद, मानसिक सन्ताप और समस्त प्रकार के अनर्थ इस लोक में ही प्राप्त करता हूँ। जब मैं यह सोचता हूँ कि 'असदाचरण ही पाप है और इस पाप से दुर्गति प्राप्त होती है तब मेरा हृदय जलता रहता है और मैं तनिक भी सुख या शान्ति प्राप्त नहीं करता । फलत: हे कृपानाथ ! अब आप कोई ऐसा प्रबन्ध कर दें जिससे मैं आपकी आज्ञानुसार आचरण करने रूप कवच पहनकर अनर्थ-सन्तति रूप बारणों के जाल से सुरक्षित रह सकू। स्वायत्तता का महत्त्व जीव के मन की स्पष्ट बातों को सूनकर धर्माचार्य ने कहा- भद्र ! दूसरों के रोक-टोक करने से और दूसरों पर विश्वास होने से अकार्य रोके जा सकते हैं, परन्तु दूसरों का सहयोग यदा-कदा ही सम्भव होता है। * दूसरे के उपदेश से असत्कार्य के त्याग का विशेष सुन्दर फल तुझे अथवा दूसरों को कितना उत्तम मिलता है यह तूने देखा ही है। हम तो सर्वदा अनेक प्राणियों पर उपकार करने में * पृष्ठ ६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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