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________________ प्रस्ताव १: पाठबन्ध १२१ निष्पुण्यक ने किंचित् स्वास्थ्य लाभ प्राप्त किया वैसे ही इसे भी समझे। विशिष्ट उज्ज्वल परिणाम न होने के कारण यह जीव भी जब गुरु महाराज प्रेरित करते हैं तब ही स्वहितकारी शुभ प्रवृत्ति का आचरण करता है, परन्तु गुरु महाराज की प्रेरणा के अभाव में यह जीव अपने सत्कर्तव्यों के प्रति शिथिल हो जाता है और पुनः असत्कार्य, प्रारम्भ (हिंसा) एवं परिग्रह की प्रवृत्तियों के जंजाल में फंस जाता है । इससे रागादि भावरोग वेग के साथ बढ़ने लगते हैं जिससे मानसिक तथा शारीरिक अनेक व्यथाएँ भी उत्पन्न हो जाती हैं। जब प्राणी की ऐसी अवस्था हो जाती है वही उसकी विह्वलता है । इसे निष्पुण्यक की विह्वलता के सदृश समझे। धर्माचार्य जिस प्रकार इस जीव को सदनुष्ठान की ओर बारम्बार प्रेरित कर सन्मार्ग पर ले आते हैं उसी प्रकार प्रेरित कर सन्मार्ग पर लाने के लिए और भी बहुत से जीव होते हैं । समस्त जीवों पर अनुग्रह करने में संलग्न होने के कारण जिस-जिस समय जो जीव सम्पर्क में आता है उसी को वे प्रेरित कर सकते हैं। यही कारण है कि सर्वदा गुरु महाराज का सानिध्य प्राप्त न होने से यह जीव शेषकाल में स्वयं के लिए अहितकारी अशुभ प्रवृत्तियों का आचरण करने लगता है। उस समय उसे कोई रोकने वाला न होने से पूर्वोक्त अनर्थ-परम्परा प्रारम्भ हो जाती है । इस कथन को जैसे तहया की अनुपस्थिति में निष्पुण्यक अपथ्य भोजन का सेवन करता है, * उससे पुनः उसके रोग बढ़ते हैं और अनेक प्रकार के विकार पैदा होते हैं वैसे ही जीव के साथ होता है। [ ३३ ] सद्बुद्धि को नियुक्ति अनन्तर के घटनाचक्र का मूल कथा-प्रसंग में विस्तार से प्रतिपादन कर चके हैं, उसका निष्कर्ष यह है :--"धर्मबोधकर ने निष्पुण्यक को पुनः व्याधियों से पीडित देखकर उससे इसका कारण पूछा। उसके उत्तर में निष्पुण्यक ने अपनी समस्त वास्तविकता बताते हुए कहा-'हे नाथ ! आप मेरे लिए अब ऐसी व्यवस्था करें कि फिर मुझे स्वप्न में भी पीडा न हो।' निष्पुण्यक की बात सुनकर धर्मबोधकर ने कहा-'यह तद्दया अन्य अनेक कार्यों में व्यस्त रहने के कारण तुझे अपथ्य सेवन से रोक नहीं पाती है। अतः जो निरन्तर तेरी सार संभाल कर सके ऐसी व्यग्रता रहित अन्य परिचारिका की नियुक्ति कर देता हूँ, किन्तु तुझे उसके समस्त निर्देशों का पालन करना होगा।' निष्पुण्यक की स्वीकृति प्राप्त कर धर्मबोधकर ने उसकी सार-संभाल के लिए असाधारण चातुर्यपूर्ण सद्बुद्धि नामक परिचारिका की नियुक्ति कर दी। पश्चात् सद्बुद्धि के सम्पर्क से और उसके निर्देशानुसार आचरण करने से निष्पुण्यक की अपथ्य भोजन पर लोलुपता दूर हई। इससे इसके रोग क्षीण होने लगे, विकार दूर होने लगे, शारीरिक सुख का किंचित् * पृष्ठ ६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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