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________________ १२६ उपमिति-भव-प्रपंच कथा स्नेह होने लगे, उससे तो उसका त्याग नहीं करना ही अच्छा है, क्योंकि तुच्छ भोजन पर मोह रखने से व्याधियाँ बढ़ जाती हैं। कुभोजन थोड़ा खाने से और तीनों औषधियों का सेवन अधिक करने से तेरी व्याधियाँ कम हई हैं और तेरे शरीर में शांति आई है, यह भी अति दुर्लभ है । एक बार सर्वथा त्याग करने के बाद ऐसे तुच्छ भोजन की इच्छा करने वाले की व्याधियाँ महामोह के प्रताप से क्षीण नहीं हो सकतीं। इस सम्बन्ध में सम्यक प्रकार से विचार करने के पश्चात यदि तेरे मन में यह पूर्ण प्रतीति हो कि 'इसका वास्तव में त्याग करना चाहिये' तभी उत्तम पुरुषों को सर्वथा त्याग करना चाहिये । सद्बुद्धि का उत्तर सुनकर उसके मन में जरा घबराहट हुई, इससे वह अच्छी तरह से निश्चय नहीं कर सका कि उसको क्या करना चाहिये।" इस जीव के सम्बन्ध में भी ऐसी ही स्थिति बनती है । सर्व संग-त्याग के लिए पर्यालोचन - गहस्थावस्था में रहते हए जब इस जीव की सांसारिक पदार्थों के प्रति लालसा समाप्त हो जाती है और ज्ञान दर्शन चारित्र के प्राचरण में दृढ़ानुराग हो जाता है तब उसे यह प्रतीत होता है कि वास्तविक सुख का स्वरूप क्या है और वह कहाँ है ? यह ज्ञान होने पर उसे अविच्छिन्न रूप से प्रशम सुख (परम शांति) प्राप्त हो इसकी अभिलाषा उसके मन जागृत होती है । फलस्वरूप इस जीव के मन में समस्त पर-पदार्थों को त्याग करने की बुद्धि होती है। उस समय वह स्वयं की सद्बुद्धि के साथ गहराई से ऊहापोह करता है कि मैं सर्व संग का त्याग करने में समर्थ हूँ या नहीं ? सद्बुद्धि पूर्वक पर्यालोचन करने से उसे प्रतीत होता है - इस अनादि संसार में चिरकालीन संस्कारों के कारण यह जीव विषयादि पदार्थों को अपना मानकर सहजभाव से आसक्तिपूर्वक प्रवृत्ति करता रहता है। यदि यह जीव समस्त दोषों से निवृत्तिरूप भागवती दीक्षा ग्रहण करके भी अनादिकालीन कर्मजनित पूर्व प्रवृत्तियों का अनुसरण कर, पुन: विषयादि पदार्थों के प्रति स्पृहा रखता है तो स्वयं की आत्मा को विडंबित करता है। इससे तो दीक्षा नहीं ग्रहण करना ही अधिक श्रेयस्कर है। क्योंकि, तीव्र लालसा रहित होकर, विषयादि पदार्थों का उपभोग करता हुअा गृहस्थ (श्रावक) भी मुख्य रूप से ज्ञान दर्शन चारित्र का आचरण करता हुआ द्रव्यस्तव का आश्रय लेकर कर्मरूप अजीर्ण का नाश करता जाता है और इससे रागादि भाव-रोगों को कम करता हुया कर्मों को क्षीण करता जाता है। ऐसे भावरोगों की कमी भी अनादिकाल से भवभ्रमरण करते हुए इस जीव को पहले कभी प्राप्त नहीं हई थी, अत: भावरोगों की ऐसी क्षीणता इस जीव को प्राप्त हो जाए यह भी अत्यन्त दुर्लभ बात है । यदि प्रव्रज्या (भागवती दीक्षा) ग्रहण करने के पश्चात् विषयादि पदार्थों के प्रति आकांक्षाएँ जागृत होती हैं तो प्रतिज्ञा-भंग (प्रत्याख्यान भंग) के कारण चित्त में अत्यधिक सन्ताप होता है और रागादि भावरोगों की अत्यधिक वृद्धि होती है। फलतः गृहस्थावस्था (देशविरति अवस्था) में जो भावरोगों की कमी थी उतनी भी उसे प्राप्त नहीं होती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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