SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११४ उपमिति भव- प्रपंच कथा विपरीत प्रकार की उपाधियां और अनर्थ - परम्परा की बढ़ोत्तरी करते हैं । कहा भी है : धर्मानुष्ठानवैतथ्यात् प्रत्यपायो महान् भवेत् । रौद्रदुःखौधजनको दुष्प्रयुक्तादिवौषधात् ॥ अर्थात् जैसे श्रौषध का सेवन योग्य रीति से न किया जाय तो वह लाभ के बदले हानि पहुँचाती है वैसे ही धर्मानुष्ठान का विपरीत आचरण करने से वह भयंकर दुःखों को उत्पन्न करता 1 गुरु-परम्परा हे भद्र ! इस भगवद् प्राज्ञा का ज्ञान हमें सुगुरु-परम्परा से प्राप्त हुआ है । भगवत्कृपा से ही हम जीवों की योग्यता और अयोग्यता के लक्षणों को जानते हैं । ज्ञान दर्शन चारित्र के माध्यम से ही जीव की साध्यता - असाध्यता, योग्यताअयोग्यता का परीक्षण सफलतापूर्वक किया जा सकता हैं, ऐसा भगवान् ने प्रतिपादन किया है । सुसाध्य अधिकारी जो जीव प्रारम्भिक अवस्था में हों फिर भी उनके सन्मुख यदि ज्ञानदर्शन - चारित्र का कथन किया जाए तो वे उसे सुनकर प्रसन्न होते हैं, जिनको इन तत्त्वों पर अत्यधिक प्रीति हो और इन प्रौषधों का सेवन करने वाले जीवों की श्रेष्ठता का जिनके मानस पर प्रतिभास पड़ता हो, जो सुखपूर्वक इन श्रौषधियों को ग्रहण करते हों और जिनको इन औषधियों के सेवन मात्र से तत्काल ही विशेष अन्तर प्रतीत होता हो, तो वे जीव लघुकर्मी होने के कारण शीघ्र ही मोक्ष जाने की योग्यता रखते हैं । जैसे सुन्दर काष्ठपट्टिका पर सहजता से चित्र निर्माण किया जा सकता है वैसे ही इन जीवों को समझें । राग-द्वेषादि भाव रोगों का नाश करने में ऐसे जीव सुसाध्य की कोटि में आते है, ऐसा समझें । कष्टसाध्य अधिकारी जिन प्राणियों के समक्ष प्रारम्भ में ज्ञानादि रत्नत्रयी की बात की जाये तो उसे सुनकर जिन्हें रुचि होती है, अनुष्ठान परायण व्यक्तियों का जो तिरस्कार करते हैं, धर्माचार्य द्वारा विशिष्ट प्रयत्न करने पर जो प्रतिबोध को प्राप्त होते हैं, षध त्रयी ग्रहण करने में हिचकिचाहट करते हैं, जिनको इन औषधियों के सेवन से तत्काल में लाभ नहीं दिखाई देता, अर्थात् बहुत समय बाद इन औषधियों का सामान्य प्रभाव दिखाई देता है और जो पुनः पुनः प्रतिचार (दोष) लगाते हैं, ऐसे जीव निश्चय ही गुरुकर्मी होने के कारण दीर्घकाल के पश्चात् मोक्ष जाने की योग्यता अर्जित करते हैं । मध्यम प्रकार की काष्ठपट्टिका पर चित्रालेखन में जैसे शिक्षक की आवश्यकता होती है वैसे ही इस प्रकार के जीव सद्गुरु की ओर से बारम्बार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy