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प्रस्ताव १ : पीठबन्ध
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उसको बतलाई थों उन्हों को यहाँ उसे विस्तार से समझाते हए कहा-विमलालोक अंजन, तत्त्व प्रीतिकर तीर्थजल और महाकल्याणक परमान्न ये हमारी तीनों औषधियाँ अभूतपूर्व चमत्कारी हैं। इन औषधियों का सेवन करने के लिये कौन सा जीव योग्य है और कौन सा अयोग्य ? इस सम्बन्ध में महाराजाधिराज सुस्थित के सम्प्रदाय (परम्परा) में जो निश्चित विधान (नियम) बना हुआ है, उसी के आधार से अधिकारी के लक्षण निश्चित करके हम इन औषधियों का सेवन कराते हैं। पुनः धर्मबोधकर ने कहा-हे भद्र ! तुम्हारा रोग अत्यन्त कष्टसाध्य है, असाधारण प्रयत्नों के बिना तुम्हारे रोग उपशान्त हो जाएँ ऐसा दिखाई नहीं देता। अतः तुम अनवरत सावधानी और प्रयत्नपूर्वक अपना चित्त स्थिर करते हुए इस राजमन्दिर में सुखपूर्वक रहो और समस्त रोगों को समूल नष्ट करने में महाराज की इन अभूतपूर्व औषधियों का अहर्निश (प्रतिदिन) नियमित रूप से सेवन करो। यह मेरी पुत्री तद्दया तुम्हारी परिचारिका है। यह तद्दया तुम्हें समय-समय पर प्रौषधियाँ देती रहेगी।' धर्मबोधकर ने जो बात विस्तारपूर्वक कहो उसे द्रमुक ने स्वीकार की। द्रमुक ने अपना भिक्षापात्र सदा के लिए एक स्थान पर रख दिया और उसको रक्षा करते हए, उसका कुछ समय इस स्थिति में व्यतीत हो गया।" उक्त प्रसंग की जीव के साथ तुलना इस प्रकार है :धर्माचार्य का पुनः कथन
जब यह जीव निश्छल हृदय से अपनी आप बीती अक्षरशः निवेदन करते हए निर्देश मांगता है, मुझे अब क्या करना चाहिये ? तब सद्धर्माचार्य भी उस पर अनुकम्पा (दया) लाकर, स्वयं ने जो इस जीव को उपदेश दिया था किन्तु मोहग्रस्त होने के कारण इस जीव ने उस ओर लक्ष्य नहीं दिया था, उसी उपदेश को पुनः विस्तार के साथ उसे सुनाते हैं। अनन्तर यह जीव कालान्तर में भी धर्मभ्रष्ट न हो जाए और यह अपने धर्म में सर्वदा दृढ़ रहे, इस बात को लक्ष्य में रखते हए धर्माचार्य उसके सन्मुख * धर्म-सामग्री की दुर्लभता का प्ररूपण करते हैं, रागद्वषादि भाव-रोगों की प्रबलता पर विवेचन करते हैं और यह भी प्रतिपादित करते हैं कि जीव स्वतंत्र नहीं है; क्योंकि कर्म-परतन्त्र होने के कारण कर्मों के निर्देशानुसार कार्य करता है, इत्यादि विषयों का प्रतिपादन करते हुए सद्गुरु इस जीव को कहते हैं-हे भद्र ! जैसी सामग्री से तुम सम्पन्न हो वैसी सामग्री अधन्यों (भाग्यहीनों) को कदापि प्राप्त नहीं होती। हम भी अपात्र (अयोग्य) व्यक्तियों पर किसी प्रकार का प्रयास नहीं करते; क्योंकि जिनेश्वर देवों की यह प्राज्ञा है कि जो जीव योग्य हों उन्हीं को ज्ञान दर्शन चारित्र प्रदान करना चाहिये, अयोग्य प्राणियों को नहीं। अयोग्य जीवों को प्रदान करने से ज्ञानादि उनके स्वार्थ के साधक नहीं बनते, प्रत्युत
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