________________
११२
उपमिति-भव-प्रपच कथा
भगवन् ! मेरी चित्त की जो ऐसी विकृत दशा हो रही है, उसका कारण भी आप सुनें। अनन्तर यह जीव गुरुदेव के सन्मुख पश्चात्ताप-पूर्वक अपने अशिष्ट व्यवहार की गर्दा करता है, अशिष्ट भाषण के लिये खेद प्रकट करता है, पूर्व समय के अविचारित कुविकल्पों को प्रकट करता है, अथ से इति तक अपनी पूर्ण आत्मकथा का निवेदन करता है और अन्त में धर्माचार्य से कहता है-भगवन् ! मैं जानता हूँ कि मेरा परमहित करने की लालसा से ही आप विषयादिक की निन्दा करते हैं, संग-त्याग का वर्णन करते हैं, इनका त्याग करने वाले त्यागियों के प्रशमसुख की प्रशंसा करते हैं और उससे प्राप्त होने वाले परमपद की श्लाघा करते है; * परन्तु मैं तो कर्मों से परतन्त्र (पराधोन जकड़ा हुआ) हूँ। जैसे भैंस का दही और बैंगन का अधिक मात्रा में भक्षण करने पर ऊँघ दूर नहीं होती, जैसे अमन्त्रित तीव्र विष पीने पर विह्वलता (मूर्छा) दूर नहीं होती वैसे ही धन-विषय-कलत्रादि पर चिरकालीन सम्पर्क के कारण अनादिकाल से चली आ रही मूर्छा को दूर करने में मैं तनिक भी शक्तिमान नहीं हूँ। इस मूर्छा से विह्वल चित्त होने के कारण, जैसे प्रगाढ़ निद्रा में सुप्त पुरुष को जोर-जोर से चिल्लाकर कोई उठाता है तो उसके शब्द निद्राधीन को कर्णकटु और उद्वेगकारी प्रतीत होते हैं वैसे ही आपकी भगवद वाणी सम्बन्धी धर्मदेशना भी मुझे प्रबल उद्वेगकारी और अप्रिय लगती थी। जब भी मैं देशना सुनते हुए आपकी वाणी में रही हुई मधुरता, गम्भीरता, उदारता, भाव-सौन्दर्य पर ऊहापोह करता था तब यदा-कदा बीच-बीच में मेरा चित्त भी आह्लादित हो जाता था। अनन्तर जब आपने कहा कि, “तू अशक्त है अतएव हम सर्वस्व त्याग नहीं कराते" तब कहीं जाकर मेरा मानसिक भय दूर हुया और निराकुल होकर अपनी समस्त आत्मकथा को आपके सन्मुख कहने में सक्षम हो सका । अन्यथा तो जब-जब भी आप देशना देने को प्रवृत्त होते थे तब-तब मेरे चित्त में संकल्प-विकल्प उत्पन्न होते रहते थे- अरे! ये तो स्वयं निःस्पृह हैं इसीलिये मुझ से भी धन-विषय-कलत्रादि का त्याग करवाना चाहते हैं अर्थात् अपने जैसा मुझे बनाना चाहते हैं किन्तु में तो इनको छोड़ने में सक्षम नहीं हूँ; फलतः ये निरर्थक प्रयास कर रहे हैं। इस प्रकार मेरे मन में अनेक प्रकार के संकल्प-विकल्प चलते रहते थे किन्तु प्रबल भय के कारण अपने विचार प्रकट करने में समर्थ नहीं हो सका था। अब मेरा आपसे अनुरोध है कि मुझे क्या करना चाहिये ? इसे आप मेरी शक्ति को लक्ष्य में रखकर मुझे निर्देश प्रदान करें।
[ ३० ] औषध-सेवन के योग्य अधिकारी
निष्पुण्यक के प्रात्म-निवेदन के पश्चात् का वर्ण्य-विषय मूलकथा में विस्तार से प्रतिपादित कर चुके हैं। उसका निष्कर्ष यह है :--"दरिद्री निष्पुण्यक के आत्म-वृत्तान्त को सुनकर, कृपालु धर्मबोधकर ने पहले जो बातें संक्षेप रूप में * पृष्ठ ८६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org