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________________ प्रस्ताव १ : पीठबन्ध भोजन भी प्रदान करें; अन्यथा इसके बिना भी चलेगा।" इस कथन की योजना निम्नांकित है : ... भोगासक्त का तुच्छ निवेदन इस जीव को चारित्र ग्रहण करने के भाव (विचार) होते हैं किन्तु कर्मों द्वारा परतन्त्र होने के कारण गुरुदेव के सन्मुख यह जीव निष्पुण्यक के समान ही बोलता है । अब इस जीव को भी धर्मगुरु के प्रति पूर्ण विश्वास हो जाता है और ज्ञान-दर्शन के लाभ की प्रतीति भी हो जाती है तथापि इस जीव की धनादि के प्रति गाढ मूर्छा दूर नहीं होती । धर्म गुरु तो धन-विषयादि का पूर्णतया त्याग कर चारित्र ग्रहण करने को कहते हैं । ९ इस बात से जीव विह्वल हो जाता है और दीनतापूर्वक गुरुदेव से कहता है-भगवन् ! आप जो प्रादेश प्रदान कर रहे हैं, कह रहे हैं वह पूर्णतया सत्य है, किन्तु आपसे मेरी एक विज्ञप्ति (निवेदन) है, कृपा कर प्राप सूनें। मेरी यह आत्मा धन-विषय-कलत्रादि में प्रबल रूप से आसक्त है, इनको छोड़ना मेरे लिये किसी भी प्रकार से शक्य नहीं है, इनका त्याग तो मेरे लिये प्रत्यक्ष मौत है। इनको मैंने बड़े परिश्रम और विविध क्लेश सहकर प्राप्त किया है, इनका असमय में ही मैं कैसे त्याग कर दूं? मेरे जैसे प्रमादी जीव प्राप द्वारा प्रतिपादित विरति का स्वरूप पूर्णतया समझ भी नहीं सकते । एक बात और कहूँये धन-विषयादिक पदार्थों का संचय मेरे जैसों के लिये भविष्य में भी चित्त की प्रसन्नता के कारण बन सकते हैं, किन्तु आपके द्वारा प्ररूपित अनुष्ठानों की साधना तो राधावेध के समान अत्यन्त कठिन है, मेरे जैसे प्रारणी के लिये यह साधना कैसे शक्य हो सकती है ? मेरी दृष्टि में आपका यह सारा प्रयत्न योग्य स्थान पर नहीं हो रहा है । कहा भी है - महतापि प्रयत्नेन तत्त्वे शिष्टेऽपि पण्डित :। प्रकृति यान्ति भूतानि, प्रयासस्तेषु निष्फल : ॥ अर्थात् पण्डितों के विशेष प्रयत्न से तत्त्व जानकर भी प्राणी अपनी प्रकृति की ओर ही आकर्षित होता है। (प्राणी अपनी प्रकृति (स्वभाव) को छोड़ता नहीं, जैसा होता है वैसा ही बना रहता है।) अतएव ऐसे प्राणियों के प्रति प्रयत्न करना व्यर्थ है। फिर भी आपश्री का मुझे विरति प्रदान करने का आग्रह ही है तो, जो धन-विषय-कलत्रादि मेरे पास हैं, उनके विद्यमान रहते हुए आप अपना चारित्र व्रत मुझे प्रदान कर सकते हों तो प्रदान करें। अन्यथा मुझे इस चारित्र की कोई आवश्यकता नहीं है। [ २४ ] प्रतीति के लिये दृढ़ प्रयत्न जीव ने जब इस प्रकार उत्तर दिया तब हितकारी परमान्न भोजन को ग्रहण करने के सम्बन्ध में प्राणी को विमुख देखकर जैसे कथा प्रसंग में कहा गया के पृष्ठ ८० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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