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उपमिति-भव-प्रपंच कथा पूर्वक परीक्षण किया था किन्तु हमारा यह प्रयोग कदापि निष्फल नहीं हया था। हमारे इस सुनिश्चित और सफलतम परीक्षण प्रयोग को तूने अपने विपरीत आचरण से झूठा बना दिया है, असफल सिद्ध कर दिया है । अतएव हे दुर्मति ! तू ऐसा मत कर । मैं तुझे जैसा कहता हूँ 3 वैसा ही तू अब भी कर । तू बुरे पाचरणों का त्याग कर, दुर्गति रूपी नगरी में जाने योग्य अविरति का परिहार कर, निर्द्वन्द्व यानन्द को देने वाली और सर्वज्ञ प्रतिपादित सम्यग् ज्ञान-दर्शन का फल देने वाली "विरति” को अंगीकार कर । यदि तू ऐसा नहीं करेगा तो तेरे ज्ञान-दर्शन निष्फल हो जायगे। भगवत् प्ररूपित इस विरति को स्वीकार करने से अौर उसका सम्यक् रीत्या पालन करने से यह सकल कल्याण-परम्परा को सम्पादित करती है । पारलौकिक कल्याण की बात को छोड़ भी दें, तो भी क्या तू नहीं देखता कि भगवत्प्रतिपादित विरति पर प्रीति रखने वाले सुसाधुगण आनन्द में कितने सराबोर रहते हैं, इन्होंने अमृतरस का पान किया हो ऐसे स्वस्थ दिखाई देते हैं, विषयाभिलाषा और काम-विकलता से उत्सुकता और प्रिय-विरह-वेदना प्रादि अनेक दुःखों का इनके मानस पर किंचित् भी असर नहीं होता अर्थात् मानसिक पीड़ा से रहित होते हैं, कषायरहित होने से लोभ का मूल धनार्जन, रक्षण, नाश आदि दुःखों से ये पूर्णतया अनभिज्ञ होते हैं, तानों लोकों के वन्दनोय होते हैं और स्वयं को संसार-समुद्र को पार कर लिया हो ऐसे मानने वाले ये साधु सवदा प्रमुदित रहते हैं । (यह मानसिक और आत्मिक सुख "विरति" को अंगीकार करने से ही ये साधुगण प्राप्त करते हैं। ) अनेक गुणों से परिपूर्ण विरति को क्या तू अपनी । आत्मशत्रुता के कारगा ही स्वीकार नहीं करता ?
[ २३ ] तुच्छ भोजन पर दृढ़ प्रेत ।
जैसा कि पूर्व में कह चुके हैं: .."धर्मबोधकर के उपर्युक्त वचन सुनकर उसे कुछ विश्वास हुआ और मन में कुछ निश्चय भी हुआ कि यह पुरुष मेरा हित करने वाला है। फिर भी अपने पास के भोजन का त्याग करने की बात से वह विह्वल हो गया। अन्त में उसने दीन वचनों से कहा आपने जो बात कही उसे मैं पूर्णतया सत्य मानता हूँ, पर मुझे आपसे एक प्रार्थना करनी है, वह आप सुन । हे नाथ ! मेरे इस मिट्टी के पात्र (भिक्षापात्र) में जो भोजन है वह मुझे स्वभाववश प्राणों से भी अधिक प्यारा है। इसके में विरह में मैं क्षणमात्र भी जोवित नहीं रह सकता । इसे मैंने बहुत परिश्रम से प्राप्त किया है और भविष्य में मेरा इससे निर्वाह होगा, ऐसा मैं मानता हूँ। फिर आपका भोजन कैसा है ? इसे मैं वास्तव में नहीं जानता । आपके इस एक दिन के भोजन से मेरा होगा भी क्या ? अतः मैं अपना भोजन किसी भी अवस्था में छोड़ना नहीं चाहता । महाराज ! यदि आपको अपना भोजन मुझे देने की इच्छा हो तो मेरा भोजन मेरे पास रहने दें और पाप अपना * पृष्ठ ७६
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