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प्रस्ताव १ : पीठबन्ध
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और विषयभोगों के प्रति गाढासक्ति देखकर स्वतः ही मन में विचार करते हैं - अहो ! इस प्राणी की आत्मा के साथ कैसी दुश्मनी है ? जैसे कोई निर्भागी पुरुष रत्नद्वीप में जाकर भी रत्नों के स्थान पर कांच के टुकड़े लेकर आता है वैसे ही यह प्रारणी महर्ध्य (मूल्य) रत्नराशि के समान व्रत - नियमादि के अनुष्ठान को स्वीकार न कांच के टुकड़ों के समान विषय भोगों को प्रेम पूर्वक स्वीकार करता है । ऐसे विचार करते हुए प्राचार्यदेव स्नेह मिश्रित क्रोध से उपालम्भ देते हुए प्रमादयुक्त इस जीव को इस प्रकार कहते हैं अरे ज्ञान दर्शन के विद्वेषी ! यह तेरी कैसी अनात्मज्ञता है ? मैं प्रतिक्षण चिल्ला-चिल्लाकर तुझ कहता हूँ फिर भी तू कान नहीं धरता ? स्वयं का कल्याण करने वाले बहुत से प्राणियों को हमने देखा है, किन्तु उन सब प्राणियों में तो सचमुच में तू ही मूर्खशिरोमरिण दिखाई देता है । क्योंकि, तू भगवान् की वाणी का जानकार है, जीवादि पदार्थों (तत्त्वों) पर श्रद्धा रखता है और मेरे जैसे तुझे प्रोत्साहित करने वाले हैं । ये सामग्रियाँ बड़ी कठिनाई से प्राप्त होती हैं यह तू समझता है, संसार से पार पाना अत्यन्त दुष्कर है यह भी तू जानता है, कर्म के भयंकर परिणाम तेरे ध्यान में हैं, राग-द्वेषादि की रौद्रता तेरे द्वारा अनुभूत है फिर भी तू इन विषयों को जो समस्त प्रकार के अनर्थों की जड़ हैं, जो चन्द दिन रहने वाले हैं, तुषमुष्टि के समान निस्सार हैं, उनमें प्रीति करता है ! निरन्तर अनुराग रखता है ! हम तुझे अनर्थकूप में गिरते हुए देखकर, तुझ पर दया लाकर समस्त प्रकार के क्लेश और दोषों को नाश करने वाली, समस्त पापों का परिहार करने वाली त्यागमयी भगवद् वाणी सुनाते हैं उसे तू तिरस्कार की दृष्टि से देखता है ! यह तू नहीं जानता कि तेरे प्रति हमारा आकर्षण ( श्रादर ) किस कारण से है ? तो तू सावधानी पूर्वक सुन- तू सम्यग् ज्ञान और सम्यग् दर्शन प्राप्त कर सर्वज्ञ शासन में प्रविष्ट हुआ है । भगवत्शासन को जब तूने पहली बार देखा था तब तेरे मन में प्रमोद हुआ था । जब तू शासन रूपी मंदिर का दर्शन कर रहा था तब भगवान् की कृपादृष्टि तुझ पर पड़ी थी ऐसा हमने देखा था । जब हम को यह प्रतीति हुई कि तुझ पर भगवत्कृपा हुई है तब ही हम तेरा इतना आदर कर रहे हैं । जो भगवान् को प्रिय हो उनकी ओर प्रेमभाव रखना, भगवद्भक्तों के लिये उचित ही है । अद्यावधि जो प्रारणी सर्वज्ञ शासन मन्दिर में प्रविष्ट नहीं हुए हैं अथवा किसी भी प्रकार से प्रवेश करने में सफल होने पर भी शासन - मन्दिर को देखकर भी हर्षित नहीं होते, उन प्राणियों पर भगवत्कृपा नहीं होने से वे शासन मंदिर के बाहर ही समझे जाते हैं । मन्दिर से बहिर्भूत संसार के अनन्त जीवों को देखते हुए भी हम उनके प्रति प्रौदासीन्य वृत्ति ही रखते हैं । ऐसे प्राणी आदर के योग्य भी नहीं होते । इस सम्बन्ध में अद्यावधि हमारा यह पूर्ण विश्वास था और इसी उपाय (प्रयोग) से हम यह निर्णय करते थे कि सन्मार्ग के पथिक बनने योग्य कौन-कौन से जीव हैं ? अद्यावधि इस प्रयोग का हमने अनेक प्राणियों पर सफलता
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