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________________ १०४ उपमिति-भव-प्रपंच कथा है: - "उसके ऐसे वचन सुनकर धर्मबोधकर मन में सोचने लगा-अहो ! अचिन्त्य शक्ति वाले महामोह की चेष्टा को देखो ! यह बेचारा द्रमुक सब रोगों का घर, इस तुच्छ भोजन में इतना आसक्त है कि उसकी तुलना में मेरे उत्तम भोजन को भी तृण के समान हेय समझता है, किन्तु मैंने पहले जो निश्चय किया था कि इस सम्बन्ध में इस पामर का कोई दोष नहीं है । दोष तो इसके चित्त को व्यथित करने वाले इसके रोगों का है। फिर भी यथाशक्ति इस बेचारे गरीब को पुन: शिक्षा देनी चाहिये । शायद इससे उसका मोह टूटे या कम हो और बेचारे का हित हो सके।" वैसे ही धर्मगुरु भी इस जीव के सम्बन्ध में विचार करते हैं अहो ! इस प्राणी का महामोह तो कोई अपूर्व प्रकार का ही दिखाई देता है । यह महामोह के प्रभाव से अनन्त दुःखों का हेतु और राग-द्वेषादि अन्तरंग रोगों को बढ़ाने वाले धन-विषयादि पर एक मात्र हितकारी बुद्धि रखने वाला बन गया है। यह भगवद् वचनों को जानता हया भी अनजान बन गया है, जीवादि तत्त्वों पर श्रद्धा रखता हुआ भी अश्रद्धा दिखाता है और मेरे द्वारा निर्दिष्ट समस्त कष्टों का नाश करने वाली विरति को अंगीकार नहीं करता है । इसमें इस बेचारे संतप्त जीव का क्या दोष है ? यह सब तो कर्मों का दोष है। ये कर्म ही जीव के अच्छे अध्यवसायों को छिन्न-भिन्न कर देते हैं। उपदेशक को मानसिक स्थिरता मैं इसको प्रतिबोध देने के कार्य में प्रवृत्त हुआ हूँ; अत: इसके व्यवहार को देखकर मुझे विरक्त नहीं होना चाहिये । कहा भी है: --- अनेकशः कृता कुर्याद * देशना जीवयोग्यताम् । यथा स्वस्थानमाधत्ते शिलायामपि मृद्घट : ।। यः संसारगतं जन्तु बोधज्जिनदेशिते । धर्मे हितकरस्तस्मान्नान्यो जगति विद्यते ।। विरतिः परमो धर्मः सा चेन्मत्तोऽस्य जायते । ततः प्रयत्नसाफल्यं किं न लब्धं मया भवेत् ।।३।। अन्यच्च महान्तमर्थमाश्रित्य यो विधत्ते परिश्रम् । तत्सिद्धौ तस्य तोषः स्यादसिद्धौ वीरचेष्टितम् ।।४।। तस्मात्सर्वप्रयत्नेन पुनः प्रत्याय्य पेशलैः । वचनैर्बोधयाम्येनं गुरुश्चित्तेऽवधारयेत् ॥५॥ अर्थात्-अनेक प्रकार से बारम्बार देशना दी जाए तो वह प्राणी में योग्यता उत्पन्न करती है; जैसे कठोर प्रस्तर-शिला पर मिट्टी का घड़ा नियमित रूप से रखने से वह धीमे-धीमे अपना स्थान (गड्ढा) बना लेता है। * पृष्ठ ८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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