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________________ . प्रस्ताव १ : पीठबन्ध Jain Education International विशेषता के कारणों की खोज पुनश्च यह भी विचार करना चाहिये कोई दो पुरुष जब स्पर्श, रस, घ्राण, चक्षु और क ( पाँचों इन्द्रियों) के उन्नत प्रकार के विषयों को एक साथ प्राप्त करते हैं तब उनमें से एक तो प्रबल शक्ति वाला इन विषयों को प्रवर्धमान अत्यधिक प्रेम के साथ बारम्बार भोग करता है और दूसरा पुरुष असमय में ही कृपण हो जाता है अथवा उसे किसी प्रकार का रोग हो जाता है; फलस्वरूप भोगों को भोगने की इच्छा होते हुए भी वह भोग नहीं पाता । इस प्रकार का जीवों में विभेद ( अन्तर) बहुत बार देखने में प्राता किन्तु इसका क्या कारण है ? यह दृष्टिपथ में नहीं आता, समझ में नहीं आता कारण के बिना कोई कार्य नहीं हो सकता । यदि इस प्रकार के कार्य अकारण ही होते रहते हों तो प्रकाश के समान सर्वदा होते रहने चाहिये अथवा खरगोश के श्रृंग के समान कदापि नहीं होने चाहिये । जब कि यह विभेद कभी तो प्रत्यक्षतः दिखाई देता है और कभी नहीं दिखाई देता । अतएव यह निश्चित है कि यह विभेद अकारण नहीं है, इसमें कोई न कोई कारण अवश्य है । धर्म और अधर्म के परिणाम इसी बीच में इस बात को कुछ समझकर वह जीव बोला- भगवन् ! इन विभेदों का उत्पादक काररण क्या है ? जीव का प्रश्न सुनकर धर्माचार्य बोले - हे भद्र ! सुनो समस्त प्राणियों को जो सुन्दर विशेषताएँ ( सामग्री आदि) प्राप्त होती हैं उनका अन्तरंग कारण धर्म ही है । यह धर्म ही प्राणियों को अच्छे कुल में उत्पन्न करता है, धर्म ही उसे गुरणों का धाम बनाता है, यही सब अनुष्ठानों को सफल बनाता है, प्राप्त हुए भोगों का निरन्तर उपभोग करवाता है और अन्य समस्त शुभ विषयों को प्राप्त करवाता है, अर्थात् धर्म के प्रताप से ही समस्त श्रेष्ठ संयोग प्राप्त होते हैं । इसी प्रकार सब जीवों को जो प्रशोभन विशेषताएँ ( श्रप्रिय साधन) प्राप्त होते हैं उनका अन्तरंग काररण भी अधर्म ही है । अधर्म के कारण ही जीव अधम कुलों में उत्पन्न होता है, सब प्रकार के दोषों (दुर्गुणों) का श्राश्रय स्थान बन जाता है, सब प्रकार के व्यवसायों में असफल होता है, शक्ति-वैकल्य के कारण प्राप्त भोगों को भोग नहीं पाता और अन्य अनेक प्रकार के अप्रिय, श्रमनोज्ञ एवं अशुभ विषयों को प्राप्त करता है, अर्थात् अधर्म के कारण समस्त प्रकार के अशुभ संयोग प्राप्त होते हैं । अतएव यह स्वीकार करना चाहिये कि जिस धर्म के प्रभाव से समस्त प्रकार की सम्पदाएँ जीवों को प्राप्त होती हैं वह धर्म ही प्रमुखतम पुरुषार्थ है । अर्थ और काम की पुरुष कितनी भी अभिलाषाएँ करे किन्तु धर्म के बिना ये प्राप्त नहीं हो सकतीं । धर्मयुक्तों को कल्पना नहीं करने पर भी ये स्वतः ही प्राप्त * पृष्ठ ७२ है । m For Private & Personal Use Only ६३ www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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