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उपमिति भव-प्रपंच कथा
हो जाती हैं । अतएव अर्थ और
कामार्थी प्राणियों को वस्तुत: धर्म पुरुषार्थ की साधना करना ही आवश्यक एवं युक्त है । इसी कारण धर्म ही प्रधान पुरुषार्थ है । यद्यपि अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य और अनन्त श्रानन्द रूप आत्मा की मूल अवस्था को प्रकट करने वाला मोक्ष नामक चतुर्थ पुरुषार्थ ही है, यह मोक्ष पुरुषार्थ समस्त क्लेश-राशियों को नष्ट करने वाला है और प्राणी स्वतंत्र रूप से स्वाभाविक आनन्द का भोग कर सके ऐसी प्रह्लादमयी स्थिति को प्राप्त कराने वाला होने से प्रमुख पुरुषार्थ है तदपि धर्म पुरुषार्थ की साधना के फलस्वरूप ही परम्परा से मोक्ष पुरुषार्थ साध्य होने से धर्म को प्रधानता दी गई है । मोक्ष पुरुषार्थ प्रधान होते हुए भी वस्तुतः मोक्ष का सम्पादक धर्म ही प्रधान पुरुषार्थ है । कहा भी है
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धनदो धनार्थिनां धर्मः कामिनां सर्वकामदः । धर्म एवापवर्गस्य पारम्पर्येण साधकः ||
अर्थात् धर्म धनेच्छुत्रों को धन, कामार्थियों को काम प्रदान करता है और धर्म ही परम्परा से अपवर्ग (मोक्ष) का साधक होता है ।
अतएव धर्म से प्रधानतम कोई पुरुषार्थ नहीं है । पुनः कहते हैं:
धर्माख्यः पुरुषार्थोऽयं, प्रधान इति गम्यते । पापग्रस्तं पशोस्तुल्यं, धिग् धर्मरहितं नरम् ॥
अर्थात् धर्म नाम का यह पुरुषार्थ सब पुरुषार्थों में प्रधान है । पापग्रस्त धर्महीन प्रारणी जो पशुतुल्य है, ऐसे मानव को धिक्कार है ।
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धर्म के कारण : स्वभाव: कार्य
उक्त धर्मदेशना सुनकर वह जीव बोला - 'हे भगवन् ! अर्थ और काम तो प्रत्यक्ष में दृष्टिगोचर होते हैं किन्तु आपने जिस धर्म का वर्णन किया उसे तो हमने कहीं भी नहीं देखा ! अतएव आप उसका प्रत्यक्ष स्वरूप मुझे बतावें ।' यह सुनकर धर्माचार्य ने उत्तर प्रदान किया- भद्र ! मोहान्ध प्रारणी इसको प्रत्यक्ष में नहीं देख पाते हैं, जब कि विवेकी इस धर्म को स्पष्टतः प्रत्यक्ष देखते हैं । सामान्यतः धर्म के तीन स्वरूप देखे जाते हैं: - कारण, स्वभाव और कार्य । इसमें सदनुष्ठान का पालन करना यह धर्म का कारण है, जो प्रत्यक्षतः देखने में भी आता है । स्वभाव दो प्रकार का है: - सास्रव और अनास्रव । इसमें सास्रव स्वभाव जीव में शुभ परमाणुओं का संग्रह रूप है और अनास्रव स्वभाव पूर्वोपार्जित कर्म परमाणुओं का नाशरूप (विलय रूप ) है । इन दोनों प्रकार के धर्म के स्वभावों को योगीजन तो प्रत्यक्ष में देख सकते हैं और हमारे जैसे अनुमान से देख सकते हैं । धर्मका कार्य तो प्रत्येक जीव में जो अनेक प्रकार की शुभ प्राप्तियाँ हैं वे स्पष्टतः दृष्टिपथ में
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