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________________ उपमिति-भव-प्रपंच कथा प्राणियों में जीवत्व समान होने पर भी कितने ही प्राणी ऐसे कुलों में होते हैं जो परम्परा से (अनेक पीढ़ियों से) धन से समृद्ध होते हैं, जो आनन्द के धाम होते हैं और जो विश्व में पूजित (सम्माननीय) होते हैं। कितने ही प्राणी ऐसे कुलों में उत्पन्न होते हैं जहाँ धन नामक पदार्थ की गन्ध का सम्बन्ध भी नहीं होता (धन का लवलेश भी नहीं होता), समस्त दुःखों का आगार होता है और जो समस्त लोगों द्वारा निन्दनीय माना जाता है । यह महदन्तर क्यों पड़ता है ! एक ही माता-पिता से उत्पन्न हुए जुड़वाँ दो भाइयों में विशेष अन्तर देखने में आता है । जैसे कि, इन जुड़वाँ भाइयों में से एक तो रूप (सौन्दर्य) में कामदेव, समता में मुनि, बुद्धिवैभव में अभयकुमार, गम्भीरता में समुद्र, अडिगता में मेरुशिखर, शूरवीरता में अर्जुन, धन में कुबेर, दान में कर्ण, नीरोगता में वज्र-शरीर और प्रसन्नता में महधिक देवताओं के समान होता है। इस प्रकार समस्त गुणों और कलाकौशल से शोभित एक भाई तो सब प्राणियों के मन और नेत्रों को आह्लादित करने वाला होता है, जब कि दूसरा जुड़वां भाई बीभत्स प्राकृतिधारक होने से सब को उद्वेगदायक, अपनी दृष्टि प्रवृत्ति से माता-पिता को सन्तापदायक, मूर्ख शिरोमरिण होने से पृथ्वी पर विजयकारक (भूतल में एकमात्र मूर्ख), तुच्छता में आकड़ा और सेमल की रूई से भी हलका, चपलता में वानरलीला को भी मात देने वाला, कायरता में चूहों को भो पोछे पटकने वाला, निर्धनता से रकाकृति का धारक, कृपणता से टक्क जाति के मनुष्यों का * लंघन करने वाला, रोगाक्रान्त शरीर और उसकी विविध पीड़ाओं से विक्लव तथा बम मारते रहने से जगत् के लोगों की दया प्राप्त करने वाला, दैन्य उद्वेग और शोकादि से व्याप्त चित्त वाला होने से नारकी के घोर दुःखों के समान घोर सन्ताप को प्राप्त करता है । सब लोग उसको समस्त दोषों का घर मानते हुए पापिष्ठ और प्रदर्शनीय कहकर उसकी बारम्बार निन्दा करते हैं। (अर्थात् एक माँ-बाप की सन्तान होने पर भी जुड़वाँ भाइयों में इतना महदन्तर किस कारण से होता है ?) अन्तर और हानि पुनश्च, सोचिए- ऐसे दो पुरुष उन्नत तेज, बल, बुद्धि, उद्योग और पराक्रम में जो समस्त दृष्टियों से एक समान हों, अर्थात् मानसिक, शारीरिक और प्रौद्योगिक दृष्टि से एक-सरीखे हों, वे जब अर्थोपार्जन के लिये प्रवृत्त होते हैं तब उनमें से एक व्यक्ति चाहे वह खेती-बाड़ी करे, पशु पालन करे, व्यापार करे, राज्यसेवा करे अथवा अन्य जो कोई भी कार्य हाथ में ले तो वह उन-उन कार्यों में इच्छित सफलता को प्राप्त करता है। जब कि दूसरा व्यक्ति उसी के समान उद्योग या व्यापार करता है तब भी वह उसमें तनिक भी सफल नहीं होता, विफल ही होता है। इतना ही नहीं, अपितु पूर्वजों की जो कुछ संचित सम्पत्ति होती है वह भी विपरीत आपत्तियों के कारण खो बैठता है। इसमें भी क्या कारण है ? * पृष्ठ ७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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