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________________ प्रस्ताव १ : पीठबन्ध १ अर्थात् यह विश्व इस काम पुरुषार्थ के गीत प्रमुख रूप से गाता है । नीरस काष्ठ के समान कामरहित पुरुष को धिक्कार है । इस काम पुरुषार्थ की प्रशंसा सुनकर इस प्राणी का हृदय हर्षातिरेक से उछलने लगा और स्पष्ट वाक्यों में कहने लगा- - ग्रहो ! आचाय भट्टारक ने बहुत अच्छा कहा, बहुत अच्छा कहा । बहुत समय के बाद आज धर्माचार्य ने बहुत ही सुन्दर व्याख्यान (प्रवचन) देना प्रारम्भ किया है। यदि आप इस प्रकार की सुन्दर देशना प्रतिदिन प्रदान करें तो, मैं एक क्षरण का अवकाश न होने पर भी जैसे-तैसे समय निकालकर, सारी बाधाओं का त्यागकर एकाग्रचित्त होकर सुनूंगा । निष्पुयक का मुख खोलने के समान सद्गुरु ने अपने सामर्थ्य से इस जीव का मुख खोला । मोह का प्रभाव : गुरु का पर्यालोचन जब यह प्रारणी देशना के मध्य में साधु ! साधु ! ! बोलने लगता है तब धर्माचार्य अपने मन में विचार करते हैं - अहो ! महामोह का खेल देखो ! मोहराज से मारे हुए ये प्राणी प्रसंगोपात्त कही हुई अर्थ और काम की कथा से प्रसन्न होते हैं, खिल उठते हैं और प्रयत्न करने पर भी धर्मकथा को सुनकर रंजित नहीं होते । यहाँ हमने अर्थ और काम से प्रतिबद्ध ( वशवर्ती) क्षुद्र प्राणियों के हृदयों में किस प्रकार के अभिप्राय (विचार) होते हैं इसका दिग्दर्शन कराया तो यह बापड़ा इसी को सुन्दरतम मान बैठा । इस प्रारंगी को श्रवरणाभिमुख करने का मेरा परिश्रम सफल हुआ । इसको प्रतिबोध देने के लिये मेरे द्वारा चिन्तित प्रयोगबीजों ( विचारणा बीज) में अंकुर निकल आया है । मैं समझता हूँ अब यह प्रारणी मार्ग पर आ जाएगा । ऐसा मन में सोचकर प्राचार्य पुनः बोले हे भद्र ! हम तो वस्तु का जैसा स्वरूप विद्यमान हो वैसा ही प्रतिपादन करते हैं । हम झूठ बोलना तो जानते भी नहीं हैं । धर्माचार्य के वचनों पर इस जीव को विश्वास होने पर वह बोला- भगवन् ! आप जैसा कहते हैं वैसा ही है, इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है । पुन: गुरु ने कहा - भद्र ! यदि ऐसा ही है तब बतलाओ कि मैंने जो अभी अर्थ और काम की महत्ता दिखाई वह क्या तुम्हारी समझ में आ गई ? वह बोला- अच्छी तरह से समझ में आ गई । पुनः गुरु बोले- सौम्य ! हम चारों पुरुषार्थो की महत्ता प्रदर्शित कर रहे थे, उसमें अर्थ और काम के स्वरूप का वर्णन कर चुके । अब हम तीसरे धर्म पुरुषार्थं का स्वरूप बताते हैं, तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो। वह जीव पुनः बोला- मेरा पूर्ण ध्यान है, हे भगवन् ! आप आगे वर्णन करिए । धर्म पुरुषार्थ का स्पष्ट वर्णन तब धर्माचार्य अपने प्रवचन को आगे बढ़ाते हुए कहने लगे - हे श्रोतागणो ! कितने ही लोग धर्म को ही मुख्यतम पुरुषार्थ मानते हैं । समस्त * पृष्ठ ७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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