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________________ उपमिति-भव-प्रपंच कथा वह उपदेश को ध्यानपूर्वक सुनने लगा, सुनते हुए मैं आपकी सब बात समझ रहा हूँ, यह जतलाने के लिये वह अपनी गर्दन को हिलाता है: आँखे खोलता है और भोंचता है, चेहरे पर मुस्कराहट लाता है और मुख से धीमे-धीमे बोलता है -बहुत अच्छी बात कही, बहुत अच्छी बात कही। इस प्रकार जीव के शारीरिक लक्षणों को देखकर सद्धर्माचार्य समझ जाते हैं कि इसको बात (उपदेश) सुनने का कौतूहल पैदा हो गया है; ऐसा समझकर अपने प्रवचन को पुनः आगे बढ़ाते हुए कहते हैं। काम पुरुषार्थ भो भव्यलोको ! कितने ही लोग काम को ही प्रधान पुरुषार्थ मानते हैं । उन लोगों का विचार है कि, ललित ललनाओं के मुखकमल में रहे हुए मधु का पान करने में चतुर भ्रमरों के समान आचरण (अधरोष्ठपान) किये बिना पुरुष का पौरुष वस्तुतः स्वीकार नहीं किया जा सकता ; क्योंकि अर्थ-संग्रह का, कलाकोशल प्राप्त करने का, धर्मप्राप्ति का और मनुष्य जन्म पाने का वास्तविक फल तो काम ही है। यदि समस्त प्रकार की श्रेष्ठ सामग्री प्राप्त हो भी जाए किन्तु काम के साधनों का उपयोग करने की कला न पाती हो तो वह सब निष्फल ही है । जो प्राणी कामभोग का सेवन करने में प्रवीण होते हैं उनको भोग के साधनभूत धन, स्त्री, स्वर्ण आदि स्वतः ही प्राप्त हो जाते हैं । “सम्पद्यन्ते भोगिनां भोगा :" अर्थात् भोगी को भोग प्राप्त होते हैं। इस प्रसिद्ध उक्ति से बालगोपाल और स्त्रियाँ भो परिचित हैं। कहा भी है-- स्मितं न लक्षेण वचो न कोटिभि--र्न कोटिलक्ष : सविलासमीक्षितम् । अवाप्यतेऽन्यै रदयोपगृहनं, न कोटिकोट्यापि तदस्ति कामिनाम् ।। अर्थात अन्य पुरुषों को लाख रुपये व्यय करने पर भी जो स्मित हास्य (मुस्कराहट) प्राप्त नहीं होता, करोड़ रुपया व्यय करने पर भी जो मधुर वचन नहीं मिलते, कोटिलक्ष (दस खरब) व्यय करने पर भी उसके सन्मुख मादकतापूर्ण कटाक्ष फेंका नहीं जा सकता (जो मादक कटाक्ष प्राप्त नहीं होता) और कोटाकोटि द्रव्य खर्च करने पर भी जो निष्ठुर आलिंगन प्राप्त नहीं होता, ये सब कामी पुरुष को सहज प्राप्त हो जाते हैं । कामप्रवण पुरुष को कमी किस बात की है ? अतएव काम ही प्रमुख पुरुषार्थ है । कहा भी है कामाख्यः पुरुषार्थोऽयं प्राधान्येनैव गीयते । नीरसं काष्ठकल्पं हि धिक्कामविकलं नरम् ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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