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प्रस्ताव १ : पीठबन्ध
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प्राचार्य आगे कहते हैं-धनवान पुरुष वृद्धावस्था से जीर्ण शरीर वाला होने पर भी पच्चीस वर्ष की अवस्था का उन्मत्त तरुण पुरुष माना जाता है। धनवान अत्यन्त कायर (डरपोक) होने पर भी, मानो बड़ी-बड़ी लड़ाइयों में इसने अदम्य साहस और वीरता दिखाई हो तथा वह अतुलबली एवं महापराक्रमो हो, ऐसे उसके प्रशंसागीत चाटुकारों द्वारा गाये जाते हैं। जिसको सिद्ध-मातृका पाठ - (क. ख. ग.) भी न आता हो उसे भी समस्त शास्त्रों के पारंगत और तीव्रतम चतुरबुद्धि के धारक मानकर भाटगण उस धनवान की स्तुति करते हैं। कुरूप और नितान्त प्रदर्शनीय होने पर भी उसके चाटुकार सेवक उस धनवान को कामदेव के सौन्दर्य को भी पराजित करने वाला मानते हैं। रत्ती मात्र भी जिसका वर्चस्व (प्रभाव) न हो, फिर भी धनवान को समस्त वस्तुओं का साधन करने में पूर्ण प्रभावशालो मानकर धनलोलुपी उसकी ख्याति करते हैं । जघन्य कुल की दासी से अथवा वेश्या से उत्पन्न होने पर भी मानों ये प्रख्यात, उन्नत, श्रेष्ठवंश (जाति) में उत्पन्न हुए हों इस प्रकार धनार्थी उस धनवान की प्रख्याति करते हैं। सात पीढ़ियों में भी जिसका किसी प्रकार का सम्बन्ध न हो, तो भी मानो सगे भाई हों इस प्रकार का सब लोग उस धनवान के साथ सम्बन्ध एवं व्यवहार रखते हैं। यह सब अर्थ (धनदेव) की लीला है । पुनश्च, समस्त प्राणियों का पुरुषत्व तथा सब इन्द्रियाँ समान होते हए भी लोक में कितने ही पुरुष दाता होते हैं और कितने ही याचक, कितने ही राजा होते हैं और कितने ही सैनिक या सेवक, कितने ही इन्द्रियों के अनुपम भोगों के भोक्ता होते हैं और कितने ही दुःख उठाते हुए भी अपनी उदरपूर्ति करने में असमर्थ और कितने ही पोषक (पालन करने वाले) होते हैं और कितने हो पोषित । इस जगत् में इस प्रकार के जो अनेक भेद दिखाई पड़ते हैं वे सब अर्थ (धन) का सद्भाव और असद्भाव से उत्पन्न होते हैं, अतएव सब पुरुषार्थों में अर्थ ही प्रधान पुरुषार्थ है । कहा भी गया है-*
अर्थाख्यः पुरुषार्थोऽयं प्रधानः प्रतिभासते ।
तृणादपि लघु लोके धिगर्थरहितं नरम् ।
अर्थ नाम का पुरुषार्थ सब पुरुषार्थों में मुख्य प्रतीत होता है। धनहीन मनुष्य इस लोक में तृण से भी अधिक तुच्छ माना जाता है अतएव वह धिक्कार के योग्य है।
अर्थ द्वारा प्राकर्षण
धर्माचार्य के मुख से अर्थ की महिमा सुनकर वह जीव सोचने लगाअरे ! प्राचार्य महाराज ने तो बहुत ही बढ़िया बात कहनी प्रारम्भ की है, अतएव * पृष्ठ ६६
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