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________________ ८८ उपमिति-भव-प्रपंच कथा शंकाओं से घिरा हा यह जीव जब धर्मकथा चलती हो तब जान-बूझकर उसे नहीं सुनता, अर्थात् धर्मकथा श्रवण का त्याग करता है। उसकी डांवाडोल मानसिक स्थिति में जब प्राचार्य उस जीव से मिलते हैं तब अत्यन्त कृपालु होने के कारण वे विचार करते हैं:--यह जीव विशिष्टतर गुरणों का पात्र कैसे बने ? अतएव जब कभी वह जीव उनके पास बैठा होता है तब वे उसको सुनाते हुए, दूसरों को लक्ष्य करके सम्यग् दर्शन के गुणों का और उसकी दुर्लभता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि जो प्राणी इस सम्यग् दर्शन को स्वीकार करता है वह स्वर्ग और मोक्ष का फल प्राप्त करता है । उस व्यक्ति को न केवल पारलौकिक फल ही प्राप्त होता है अपितु इहलोक में भी उसे मन की अपूर्व शान्ति प्राप्त होती है। यह सब योजना इस जीव में चैतन्य आने के बाद आचार्य द्वारा जल का पान करने हेतु आमन्त्रण के तुल्य समझे। उपदेशक का अनादर धर्माचार्य के पूर्वोक्त वचन सुनकर डांवाडोल बुद्धि वाला यह जीव इस प्रकार सोचता है: ----ये श्रमण सम्यग् दर्शन के गुरणों की अत्यधिक प्रशंसा करते हैं, किन्तु ज्यों ही मैं सम्यग् दर्शन अंगीकार करूंगा त्योंही ये मुझे अपना वशवर्ती समझकर अवश्य ही मेरे पास से धनादिक की याचना करेंगे । मुझे प्राप्त वस्तु का त्यागकर अप्राप्त वस्तु की अभिलाषा रूप आत्म-प्रवंचना को क्या आवश्यकता है ? मैं नहीं जानता कि इन श्रमणों के मन में क्या है और ये मुझसे कितना र करवायेंगे ? इस प्रकार के विचारों में बहका हुआ प्राणी प्राचार्य के वचन। जैसे सुना ही न हो, अंगीकार नहीं करता है। इस कथन को जैसे निष्पुण्यक पानो पीने को निमंत्रण देने पर भी पानी पीने की इच्छा नहीं करता वैसे ही इस जीव की मनोदशा को समझे। मार्गदेशना : अर्थ पुरुषार्थ ____ जीव की ऐसी मनोदशा देखकर धर्मगुरु सोचते हैं कि क्या उपाय करना चाहिये कि जिससे यह बोध को प्राप्त हो। ऊहापोह के पश्चात् वे इस मार्ग का अवलम्बन लेते हैं। जैसे, किसो समय में यह जीव उपाश्रय में पाया हुआ है जानकर, उसके आने से पूर्व ही अन्य प्राणियों को इंगित करते हए धर्माचार्य मार्गदेशना (धर्मोपदेश) देना प्रारम्भ करते हैं -हे भव्यप्राणियो ! तुम सब प्रकार के विक्षेपों का त्याग कर मैं जो कह रहा हूँ उसे ध्यान पूर्वक सुनो। इस संसार में चार प्रकार के पुरुषार्थ होते हैं-अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष । कई लोग इन पुरुषार्थो में से अर्थ को ही प्रधान पुरुषार्थ मानते हैं। प्राचार्य इस प्रकार धर्मदेशना की भूमिका बाँधते हैं इसी बीच यह प्राणी सभास्थल में आ जाता है, उस समय उसको सुनाते हुए * पृष्ठ ६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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