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________________ प्रस्ताव १ : पीठबन्ध ऐसा तुच्छ विचार वाला प्राणी अपनी अधम मन की कल्पनाओं के आधार पर उदार हृदय एवं नि:स्पृह मुनिपुगवों के प्रति भी ऐसे ही निराधार विचार किया करता है कि इनके निकट रहने पर ये मेरे से किसी वस्तु की याचना करेंगे ; ऐसी शंकाएँ बारंबार किया करता है। इसी कारण न तो वह उनसे निकट सम्पर्क बनाये रखता है और न उनके पास अधिक समय तक रुकता ही है। [२०] जल का विलक्षण प्रभाव जैसा कि पहले कह चुके हैं:-"निष्पूण्यक को सूरमा लगाने से कुछ चेतना प्राप्त हई देखकर धर्मबोधकर ने मीठे वचनों से उससे कहा:--हे भद्र ! तेरे सब तापों (रोगों) को कम करने वाला यह तत्त्व प्रीतिकर पानी तो जरा पी। यह पानी पीने से तेरा शरीर सम्यक् प्रकार से स्वस्थ हो जाएगा। धर्मबोधकर जब उस भिखारी को इस प्रकार की प्रेरणा दे रहा था तब भी वह द्रमुक (निष्पुण्यक) शंकाकुल होकर अपने मन में सोच रहा था कि यह पानी पीने से क्या होगा? इसका क्या निश्चय ? ऐसे विचारों से उस मूढात्मा ने तत्त्व प्रीतिकर जल को पीने की इच्छा नहीं की। धर्मबोधकर ने जब उसकी ऐसी दशा देखी तब हृदय में अत्यधिक दयाभाव होने के कारण उसके हित के विचार से उसकी इच्छा के विरुद्ध भी 'बलपूर्वक भी हित-साधन करना चाहिये' ऐसा मानते हुए, बलपूर्वक उसका मह खोलकर उसने तत्त्वप्रीतिकर नामक जल उसके मुंह में डाल दिया। यह पानी अत्यन्त शीतल, अमृत के समान स्वादिष्ट, चित्ताह्लादकारी और सब सन्तापों को नष्ट करने वाला था। उसके पीने से वह पूर्णरूपेण स्वस्थ के समान हो गया। उसका उन्माद बहुत कम हो गया, उसके रोग कम हो गए और उसके शरीर की दाहपीड़ा (जलन) ठंडी पड़ गई। उसकी सभी इन्द्रियाँ संतुष्ट हुईं। इस प्रकार की उसकी अन्तरात्मा के स्वस्थ होने से उसकी विचारशक्ति भी किचित् शुद्ध हुई और वह सोचने लगा।" वैसे ही उक्त कथन इस जीव के साथ पूर्णतया घटित होता है, जिसकी योजना इस प्रकार है:सम्यग् दर्शन की प्राप्ति में कठिनता जब यह जीव कुछ समय निकाल कर साधुनों के उपाश्रय में आता है तब साधुओं के सम्पर्क से उसको द्रव्यश्रुत (छिछला ज्ञान या सामान्य व्यावहारिक ज्ञान) की प्राप्ति होती है। द्रव्य श्रुत-सम्पन्न होने से उस जीव में किंचित् विवेकबुद्धि अवश्य जागृत होती है किन्तु वह विशिष्ट श्रद्धा से रहित होता है । यही कारण है कि वह धन-विषय-कलत्र को परमार्थ (हितकारी) बुद्धि से ही ग्रहण करता है और उन पर प्रबल आसक्ति रखता है। इस गाढासक्ति के कारण ही वह यह समझता है कि साधुगण भी इन्हीं विषयों की चाहना करते होंगे । इस प्रकार की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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