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उपमिति भव-प्रपंच कथा
करने के कारण अवश्य ही दुर्गति में चला जाएगा, अतएव मुझे इसके प्रति किसी भी प्रकार का उपेक्षाभाव नहीं रखना चाहिये । ऐसा सोचकर पुनः सद्गुरु उसे कहते हैं: हे वत्स ! तूने जैसा कहा वैसा ही होगा । फिर भी मैं तुझे एक बात (वचन) कहता हूँ, तू उस वचन को स्वीकार कर । तू दिन या रात के किसी समय में भी (जब तुझे समय मिले तब ) एक बार अवश्यमेव उपाश्रय श्राकर साधुओं के दर्शन कर चले जाना। इस बात का तू ग्रभिग्रह (नियम) धारण कर । इसके अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार का व्रत ग्रहण करने को मैं तुझे नहीं कहूँगा । जीव ने सोचा - क्या करू ? मार्ग में ही महाराज मिल गये और उनकी इस सामान्य बात को भी स्वीकार नहीं करूं तो अच्छा नहीं लगेगा । श्रतएव अनिच्छा होने पर भी मन मसोसकर उसने यह अभिग्रह ले लिया । जीव ने धर्माचार्य का एक वचन स्वीकार किया, इसे निष्पुण्यक के शिर धुनते हुए भी आँखों में अंजन लगाने के समान समझें। इसके बाद यह प्रारणी प्रतिदिन उपाश्रय जाने लगा । साधुओं का नियमित सम्पर्क होने से, साधुयों की प्रकृत्रिम ( बनावट रहित ) शुभा - नुष्ठानमय जीवन-चर्या देखने से, उनके निःस्पृहता आदि गुणों का अवलोकन करने से और स्वयं जीव के पाप-परमाणुत्रों का दलन प्रारंभ होने से उसे विवेक कला प्राप्त होने लगी, अर्थात् उसकी विवेकबुद्धि पुनः सक्रिय हो गई । इस कथन at froपुण्य की नष्ट - चेतना पुनः प्राप्त हुई के सदृश समझें । विवेक जागृत होने पर जीव को पुनः पुनः धर्म-पदार्थों को जानने की जिज्ञासा होने लगी, इसे निष्पुण्यक के पुनः-पुनः आँखें उघाड़ने और भींचने के तुल्य समझें । जीव का क्रमशः अज्ञान नाश होने लगा, इसे निष्पुण्यक के नेत्र रोग शान्त हुए के समान समझें । धर्माचार्य के उपदेश से प्रज्ञता नष्ट होने से एवं बोध होने से जीव को किंचित् शान्ति प्राप्त हुई, इसे निष्पुण्यक को विस्मय हुआ के कथन के सदृश समझें ।
भिक्षापात्र पर प्रेम
जैसा पूर्व में कह चुके हैं :-- “ इतना लाभ होने पर भी पूर्वकालीन संस्कारों के कारण उसका अपने भिक्षापात्र को पकड़े रखने का स्वभाव नहीं गया । अब भी भिक्षापात्र की रक्षा का विचार उसके मन में बार-बार उठता रहता था । यह एकान्त स्थान है, अतः कोई उसका भिक्षापात्र उठाकर न ले जाए; इस विचार से वह वहाँ से भागने के लिए रास्ता ढूँढने को चारों तरफ नजरें घुमा रहा था ।" वैसा ही यहाँ इस जीव के साथ समझें, जो इस प्रकार है:- जब तक यह जीव प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और ग्रास्तिक्य लक्षणों से युक्त अधिगम सम्यक्त्व ( अन्य के उपदेश से प्राप्त सम्यक्त्व दर्शन ) प्राप्त नहीं करता तब तक व्यवहारबोध ( बाहरी ज्ञान ) होने पर भी प्राणी में विवेक की अल्पता के कारण धनविषय - कलत्रादि के प्रति कुत्सित भोजन के समान परमार्थ बुद्धि जागृत नहीं होती ।
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