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________________ प्रस्ताव १ : पीठबन्ध से विस्तृत धर्मदेशना श्रवण करने के प्रसंग में अथवा अन्य कोई निमित्त को प्राप्त कर यह जीव उक्त श्रेष्ठ परिणामों से परिभ्रष्ट होता है । फलस्वरूप यह न तो देवमन्दिर जाता है, न उपाश्रय जाता है, साधुओं को देखते हुए भी वन्दना नहीं करता, श्रावकजनों को आमंत्रित नहीं करता, घर में चल रही दान-प्रवृत्ति को बंद कर देता है. धर्मगुरुओं को दूर से देखकर ही भाग जाता है और पीठ पीछे उनके अवर्णवाद बोलता है (निन्दा करता है)। इस प्रकार इस जीव की विवेक चेतना को नष्ट हुई देखकर सुगुरु स्वबुद्धि-रूप शलाका में इसको प्रतिबोध देने योग्य उपाय रूप अंजन लेते हैं। किस-किस प्रकार के उपाय रूप अंजन लेते हैं ? जैसे, किसी समय प्राचार्य बहिर्भूमि आदि के कारण नगर के बाहिर गये हुए हों और मार्ग में कदाचित् वह प्राणी दृष्टिपथ में आ जाए तो वे उसके साथ मधुर-भाषण करते हैं, हित-कामना के भाव प्रशित करते हैं, स्वयं का सरल स्वभाव व्यक्त करते हैं और हम तुझे ठगने वाले नहीं हैं ऐसा उसके हृदय में विश्वास जागृत करते हैं। स्वयं के प्रति उस जीव का * विशेष सद्भाव देखकर वे उसे कहते हैं- हे भद्र ! तुम साधुओं के उपाश्रय में क्यों नहीं पाते हो? तुम अपनी आत्मा का हित साधन क्यों नहीं करते हो ? मनुष्य जन्म को क्यों निष्फल बना रहे हो ? क्या तुम शुभ और अशुभ के भेद को नहीं जानते हो? तुम पशुभाव का अनुभव कैसे करते हो ? हम तुम्हें पुनः पुनः बतला रहे हैं कि यह उपदेश ही तुम्हारे लिये पथ्य है, हितकारी है । अतएव तुझे हमारे कथन पर बारम्बार विचार करना चाहिये । ये सब बातें शलाका (सलाई) पर अंजन लगाने के समान समझनी चाहिये । यहाँ उपदेश रूप कारण में सम्यग् ज्ञान रूप कार्य का उपचार किया गया है। विचित्र उत्तर धर्माचार्य की इस प्रकार की वाणी सुनकर, यह जीव आठ प्रकार के उत्तर देने की मन में योजना कर बोला -१. हे श्रमण ! मुझे किंचित्मात्र भी समय नहीं मिलता। २. भगवान् के समीप जाने से मुझे कुछ मिलने वाला नहीं है। ३. बेकार (कामधन्धों से रहित) आदमियों को ही धर्म की चिन्ता होती है । ४. मेरे जैसा आदमी इधर-उधर घूमता रहे तो कुटुम्बीजन (औरत, बच्चे) भूखे मरें। ५. घर के बहत काम पड़े हैं, वे अधूरे रह जाएँ। ६. व्यापार-धन्धा बन्द करना पड़े। ७. राजसेवा नहीं कर सकता । ८. खेती बाड़ी का काम भी चोपट हो जाए । जीव के इस कथन की तुलना को निष्पुण्यक के शिर धुनने के समान समझनी चाहिये। व्यवहार से धर्मोपासना निष्पुण्यक के इस प्रकार के वचन सुनकर, करुणापूरित हृदय वाले धर्माचार्य अपने मन में सोचते हैं - यह बेचारा प्राणी विशेष शुभ (पुण्य) कर्म न * पृष्ठ ६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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