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________________ ८४ उपमिति-भव-प्रपंच कथा ज्ञान में भी यथावस्थित अर्थ को ग्रहण करने की प्रवीणता भी प्रदान करता है और प्रबल उन्माद के * सदृश मिथ्यात्व का नाश भी करता है। ___ चारित्र को यहाँ परमान्न समझे । सदनुष्ठान, धर्म, सामायिक, विरति (व्रत) आदि चारित्र के ही पर्यायवाची शब्द हैं । यह चारित्र मोक्ष-प्राप्ति का प्रधान कारण होने से और मोक्ष प्राप्ति में जीव का अत्यधिक कल्याण अन्तहित होने से इसे महाकल्याणक कहते हैं। यह परमान्न रूपी चारित्र ही रागादि प्रबलतम व्याधिसमूहों का जड़मूल से नाश कर देता है । यह परमान्न (खीर) वर्ण, रूप-रंग, पुष्टि, धृति (धैर्य), बल, मानसिक प्रसन्नता, प्रोज, युवावस्था को स्थायी रखने वाला और पराक्रम आदि के समान पात्मिक गुरगों को प्रकट करता है। प्राणी में इस प्रकार का विद्यमान महाकल्याणक चारित्र धैर्य का उत्पत्ति स्थान है, औदार्य का कारण है, गम्भीरता की खान है, शान्तभाव का शरीर है, वैराग्य का स्वरूप है, अन्तर्वीय (पौरुष) के उत्कर्ष का प्रबल हेतु है, निर्द्वन्द्वता का आश्रय है, मानसिक शान्ति का मन्दिर है और दया आदि गुणरत्नों का उत्पत्ति स्थान है। इतना ही नहीं, अपितु यह चारित्र अनन्त ज्ञान दर्शन वीर्य और प्रानन्द से परिपूर्ण, अक्षय, अव्यय तथा अव्याबाध-स्थान इस जीव को प्राप्त करा देता है । यह चारित्र ही इस जीव को अजर अमर भी बना देता है । अतएव यह पामर जीव जो कर्म का मारा हुआ है उस पर ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप औषधियों का प्रयोग कर इसको रोगमुक्त करू । इस प्रकार सद्धर्माचार्य अपने हृदय में इस प्राणी के लिये विचार करते हैं। [ १६ ] अंजन का अद्भुत प्रभाव कथा प्रसंग में कहा जा चका है:-"फिर उसने (धर्मबोधकर) सलाई पर अंजन (सुरमा) लगाया और वह निष्पुण्यक शिर धुनता रहा तब भी उसने उसकी आँखों में सुरमा लगा ही दिया। वह सुरमा आनन्ददायक, बहुत ठण्डा और अचिन्त्य गुण वाला था । अतः उस भिखारी की आँखों में लगते ही उसकी चेतना वापिस आ गई। परिणाम स्वरूप थोड़ी ही देर में उसने अपनी आँखें खोली तो उसे ऐसा लगने लगा मानो उसके सब नेत्र-रोग नष्ट हो गए हों ! उसके मन में थोड़ा आनन्द हुना। उसे प्राश्चर्य हुआ कि यह क्या हो गया !" इस कथन की जीव के साथ संगति इस प्रकार है : पहले यह जीव भद्र स्वभावी था, भगवत्शासन के प्रति इसकी रुचि थी, अर्हत् प्रतिमाओं की वदन्ना-अर्चना करता था, साधुओं की उपासना करता था, धर्म का वस्तु स्वरूप जानने की जिज्ञासा प्रकट करता था और दानादि में प्रवृत्त होता था। इन प्रवृत्तियों से इस जीव ने धर्माचार्यों के हृदय में 'यह जीव पात्र है' ऐसा बुद्धिभाव उत्पन्न किया था, परन्तु उसके बाद प्रबल अशुभ कर्मों के उदय * पृष्ठ ६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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