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प्रस्ताव : १ पीठबन्ध
देख सके, वह ऐसी सुन्दर आँखें बना सकता है। दूसरा मेरे पास तत्त्व प्रीतिकर नामक श्रेष्ठ तीर्थजल है, वह सब रोगों का एकदम शमन कर सकता है। विशेषतः शरीर में यदि किसी भी प्रकार का उन्माद हो तो उसका सर्वथा नाश करता है और सम्यक् प्रकार से देखने में यह सबसे अधिक सहायता करता है अर्थात् सत्यग्रहण करने में दृष्टि को चतुर बनाता है। तीसरा वह महाकल्याणक नामक परमान (खीर) है, जिसे तद्दया लेकर यहाँ खड़ी है जो सर्व व्याधियों को समूल नष्ट करने में समर्थ है। इसका नियमित विधिपूर्वक सेवन करने से शरीर का रूप-रंग बढ़ता है। वह पुष्टिकारक, धृतिकारक, बलवर्धक, चित्तानन्दकारी, पराक्रम को बढ़ाने वाला, युवावस्था को स्थिर रखने वाला, वीर्य में वृद्धि करने वाला और अजरअमरत्व प्रदान करने वाला है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है । ये परमान्नादि औषधियाँ इतनी श्रेष्ठ हैं कि इनसे श्रेष्ठ औषधियाँ विश्व में दूसरी हो ही नहीं सकतीं। अतः मैं इस बेचारे का इन औषधियों से उपचार कर इसे व्याधियों से छुड़ाऊँ। इस प्रकार धर्मबोधकर ने अपने मन में निश्चय किया।" जैसे धर्मबोधकर ने सोच-समझकर निश्चय किया वैसे ही सद्धर्माचार्य ने जीव की समस्त दशाओं पर ऊहापोह कर निर्णय किया कि इस जीव की पूर्व की प्रवृत्ति को देखने से यह निश्चित है कि यह भव्यजीव है, केवल प्रबल कर्मों से उत्पीडित होने के कारण इसका चित्त डांवाडोल हो रहा है और सन्मार्ग से भ्रष्ट हो रहा है। जीव की इन विषमताओं . को देखकर सद्गुरु की यह अभिलाषा होती है कि इस दीन का रोग रूप कर्मसमूहों
से किस प्रकार छुटकारा हो । गम्भीर दष्टि से तात्पर्य का पर्यालोचन करते हुए धर्माचार्य के मन में यह प्रतिभासित हुआ कि ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप रत्नत्रयी
औषधियाँ ही इस जीव को रोगमुक्त करने का एक मात्र उपाय है । इसके अतिरिक्त कोई उपाय ध्यानपथ में नहीं आता।
यहाँ ज्ञान को अंजन समझे। यह समस्त पदार्थों का स्पष्ट रूप से प्रतिपादक होने से इसको विमलालोक कहते हैं । अाँखों के भीतर होने वाली, समस्त प्रकार के व्याधि रूप अज्ञान का नाश ज्ञान ही करता है और यही ज्ञान तीनों कालों में होने वाले पदार्थों के समग्र भावों को प्रकट करने वाला विवेकचक्षु इस जीव को प्रदान करता है।
दर्शन को तीर्थजल समझे । जीव-अजीव आदि पदार्थों में श्रद्धा उत्पन्न करवाने का हेतु होने से इसे तत्त्वप्रीतिकर कहते हैं । इस दर्शन का जब उदय होता है तब सब कर्मों की स्थिति कम होकर, एक कोटा कोटि सागरोपम से भी कुछ कम शेष रह जाती है और उस समय दर्शन (तत्त्वश्रद्धान रूप) प्राप्त होने पर इस कर्मस्थिति में भी क्रमशः कमी आती जाती है। कर्मों को यहाँ रोग का रूपक माना है। इन समस्त रोगों को घटाने का मुख्य हेतु दर्शन ही है। यही दर्शन दृष्टि सम्बन्धी
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