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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
प्रयत्न भी करें फिर भी जब वे इस जीव की भद्रिकता नष्ट होते देखते हैं, विपरीत आचरण देखते हैं तब उनके हृदय में सहजभाव से ये विचार पाते हैं कि यह जीव कल्याण का भाजन (पात्र) हो ऐसा प्रतीत नहीं होता, अतएव यह भगवद्धर्म के योग्य नहीं है। सद्गतिगामो न होकर कुगतिगामी ही दृष्टिगोचर होता है। दुर्दल (घड़ने के अयोग्य पत्थर या लकड़ी) होने के कारण धर्मात्माओं के द्वारा यह संस्कारित होने के योग्य नहीं है। ऐसे मोह से मारे हुए प्राणो पर मैंने जो प्रयास किया उससे मेरा सारा परिश्रम निष्फल गया। दोषोत्पत्ति के कारण
पूर्व में कहा जा चुका है--"धर्मबोधकर पुनः विचार करने लगा- दूसरी तरह सोचें तो इसमें इस बेचारे का कोई दोष नहीं है । यह बेचारा तो शरीर की आन्तरिक और बाह्य व्याधियों से इतना घिर गया है और उनकी पीड़ा से इतना संवेदनाशून्य हो गया है कि कुछ भी जानने-समझने में असमर्थ हो रहा है । यदि ऐसा न हो तो वह अपने तुच्छ भोजन पर इतनी प्रीति क्यों करे ? यदि उसमें थोड़ी भी समझ हो तो वह ऐसा अमृत भोजन क्यों नहीं ग्रहण करे ?' इस प्रकार जैसे विचार धर्मबोधकर के मन में चल रहे थे वैसे ही धर्माचार्य भी इस जीव के सम्बन्ध में ऊहापोह करते हैं कि यह जीव विषय भोगों में गाढासक्ति रखता है, कुमार्ग पर चलता है और सदुपदेश देने पर भी ग्रहण नहीं करता है । इसमें इस बेचारे पामर जीव का कोई दोष नहीं है। फिर दोष किसका है ? वस्तुतः मिथ्यात्वादि भावरोगों का ही दोष है। इन्हीं भावरोगों के कारण इसकी चेतनाशक्ति (विवेकबुद्धि) मारी जाती है और इसी कारण यह जीव न कुछ जान पाता है, न समझ पाता है और न विचार कर पाता है। यदि यह जीव भावरोगों से मुक्त होता तो क्या वह अात्म हितकारी प्रवृत्तियों को छोड़कर कदापि अनिष्टकारी प्रवृत्तियों में प्रवृत्त हो सकता था ?
[१६-१७-१८] तीन औषधियाँ
पुनः धर्मबोधकर विचार करने लगा--"तब यह * नीरोग कैसे हो ? इसका मुझे उपाय करना चाहिये । अरे हाँ, ठीक है, इसको नीरोग करने के लिये मेरे पास तीन सुन्दर औषधियाँ हैं। उसमें से प्रथम मेरे पास विमलालोक नामक सर्वश्रेष्ठ अंजन (सुरमा) है, वह आँख की सब प्रकार की व्याधियों को दूर करने में समर्थ है । उसे नियमित रूप से विधिपूर्वक अाँख में लगाने से सूक्ष्म व्यवहित (पर्दे के पीछे या दूर रहे हुए), भूत और भविष्य काल के सर्वभावों को
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