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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
किसी प्रकार का अन्तर नहीं रखते, चक्रवर्ती और भिखारी जीव में ये किसी प्रकार की विभेद रेखा नहीं देखते और उदार धनवान का आदर या कृपण का अनादर की दृष्टि से व्यवहार नहीं करते । इनके विचारों में * परमैश्वर्य और दारिद्र्य दोनों समान हैं, महy रत्नों की राशि--कठोर पत्थरों का ढगला, देदीप्यमान स्वर्णराशि --- मिट्टी का ढगला, चान्दी का समूह - धूल की ढेरी, अनाज के कोठार -नमक का ढेर
और चतुष्पद जानवर तथा बर्तन आदि सार रहित पदार्थों के तुल्य हैं। इनकी दृष्टि में अपने रूप लावण्य से रति को भी तिरस्कृत करने वाली रमणियाँ और लकड़ी का जीर्ण-शीर्ण स्तम्भ भी समान है। इस प्रकार की विशुद्ध मनोवृत्ति वाले श्रमण इस प्राणी को जो उपदेश प्रदान करते हैं, इसमें उनकी केवल परोपकार करने की प्रवृत्ति ही दृष्टिगोचर होती है; अन्य कोई स्वार्थजन्य कारण नहीं है। ये श्रमण तो अपना स्वार्थ सम्पादन भी परमार्थतः स्वाध्याय, ध्यान, तपश्चर्या आदि के माध्यम से सिद्ध करते हैं । स्वार्थसिद्धि के लिये इनकी उपदेश देने में प्रवृत्ति नहीं होती। ये इससे या अन्य प्राणियों से किसी प्रकार के लाभ की अभिलाषा रखें यह तो कल्पना भी नहीं की जा सकती; अर्थात् पूर्णरूप से असम्भव है । परन्तु यह नष्ट बुद्धि वाला प्राणी वस्तुतः इन श्रमणों की मनोवृत्ति को किंचित् भी नहीं समझ पाता। यही कारण है कि ये सद्गुरु जो अत्यन्त उदार विचार वाले होते हैं उनको भी यह जीव अपनी क्षुद्र मनोवृत्ति के कारण अपने जैसे निम्न विचारों वाला समझ बैठता है और महामोह के वश में पड़े हुए, शुद्ध तत्त्व दर्शन से रहित शैव, ब्राह्मण, बौद्ध भिक्षुक और नग्न साधुओं के समान इनको भी मान बैठता है। कर्म-ग्रन्थि का भेदन करने पर भी यह जीव यदि दर्शन मोहनीय कर्म के तीन पुञ्ज (शुद्ध, अर्धशुद्ध और अशुद्ध) कर लेता है तो वह पुनः मिथ्यात्व के पुंज में विचरता रहता है । इसी दशा में इस जोव के मन में पूर्वोक्त कुविकल्प उत्पन्न होते हैं।
मिथ्यात्व की प्रबल छाया
। उक्त विकल्पजालों से प्राकुलित चित्त वाले इस जीव के मानस में पुनः मिथ्यात्व का जहर तेजी से फैलता जाता है। इसी विष के प्रभाव से इस जीव का पहले जो मौनोन्द्र दर्शन के प्रति अाग्रह था वह शिथिल हो जाता है। वह पदार्थ ज्ञान की जिज्ञासा छोड़ देता है, सद्वर्मनिरत प्राणियों का तिरस्कार करता है, विवेक-विकल प्राणियों को बहुमान देता है, पहले स्वयं जो कुछ थोड़ा-थोड़ा सुकृत कार्य करता था अब उसमें भो प्रमाद करता है, भद्रिक (सरल) स्वभाव को छोड़ देता है, विषयभोगों में मस्त हो जाता है (आनन्द मानता है), विषयभोगों को प्राप्त कराने के साधन धन-सोना आदि को तात्त्विक बुद्धि से देखता है, सत्योपदेश करने वाले गुरुओं को वंचक (धूर्त) समझता है, सद्गुरु की वाणी को सुनता भी नहीं है,
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