SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्ताव १: पीठबन्ध ७६ और संघ की शरण स्वीकार करो, ऐसा करने से तुम्हें शीघ्र ही बुद्धपद प्राप्त हो जाएगा। इस प्रकार ये रक्तभिक्षुक (बौद्ध भिक्षुक) अपनी वाक्चातुरी से माया जाल फैलाकर, शास्त्रों का उल्लेख कर जैसे प्राणियों को लूटते हैं वैसे ही ये श्रमण भी मुझे बहकाकर मेरा सर्वस्व हरण करना चाहते हैं । अथवा संघ को भोजन कराओ, ऋषियों को भोजन कराओ, सुन्दर एवं स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ प्रदान करो, मुखशुद्धि के लिये सुगन्धित पदार्थ भेंट करो। दान देना ही गृहस्थ का परम धर्म है, दान से ही संसार को पार किया जा सकता है । इस प्रकार मुझे प्रलोभित कर, अपने शरीर का पोषण करने वाले नग्न साधुओं की तरह ये श्रमण भी कहीं मेरा धन तो हरण नहीं कर लेंगे । अन्यथा मुझे आदर देते हुए मेरे सन्मुख संसार प्रपंच का इतना विस्तार क्यों करते ? उनके इन सब प्रयत्नों का निष्कर्ष यह है कि, ये सब साधु लोग वहीं तक अच्छे हैं जब तक इनके पास नहीं जावें और इनके अनुगामी (वशवर्ती) न हो जाएँ। इनको यदि यह विश्वास हो जाए कि यह श्रद्धालु हमारे चक्कर में आ गया है तो ये मायावी साधु उसको अपने वचनजाल में फंसाकर उसका सर्वस्व हरण कर लेते हैं । ये लोग मेरे साथ भी यही चाल चल रहे हैं, इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है। इस श्रमण ने तो अपना जाल फैलाना शुरु कर दिया है, अब मुझे क्या करना चाहिए ? सोचता हूँ-- क्या इनको कुछ कहे बिना ही यहाँ से उठकर चला जाऊँ ? अथवा इन्हें स्पष्ट शब्दों में कह दूं कि धर्मानुष्ठान करने की मेरी शक्ति नहीं है, अथवा यह कह दूं कि मेरा सारा धन चोर लट कर ले गये हैं, मेरे पास अर्थ नाम की कोई वस्तु शेष नहीं रही है जो कि मैं किसी पात्र को दान दे सकू । अथवा यह कह कर इस साधु को रोक हूँ कि मुझे आपके धर्मानुष्ठानों से कोई रुचि नहीं है और इस सम्बन्ध में आप कभी भी मुझे कुछ भी नहीं कहें। अथवा क्रोध से भौंहे चढ़ाकर इनको घुड़की देकर स्पष्ट शब्दों में कह दूं कि आप अप्रासंगिक बेकार बातें करते हैं । समझ में नहीं आता कि यह साधु मुझे ठगने के प्रयत्नों से कब बाज आएगा और कब अपनी इस पंचायत से मुझे मुक्त करेगा, अर्थात् मेरा पिण्ड छोड़ेगा। साधु की निःस्पृहता यह जीव पूर्वोक्त विकल्प-जालों में डूबा रहता है । इस बेचारे की चेतना दिङ मूढ़ होने के कारण यह सोच भी नहीं पाता कि ये भगवत्स्वरूप सदगुरु ज्ञानवान होने से संसार के समस्त पदार्थों को तुषमुष्टि के समान नि:सार समझते हैं, अतुलनीय सन्तोषात का पान करने से इनका अन्तःकरण पूर्णतया तृप्त है, ये विषयरूपी विष के दारुण फलों से अच्छी तरह परिचित हैं, इनको एकमात्र मोक्ष प्राप्ति की लय लगी हुई है, समस्त पदार्थों पर समदृष्टि रखते हैं और निःस्पृही हैं। यही कारण है कि जब ये उपदेश देने में प्रवृत होते हैं तब इनके मन में इन्द्र और रंक के प्रति कोई भेद नहीं रहता, महद्धिक देवताओं और निर्धन पुरुषों के बीच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy