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________________ उपमिति-भव-प्रपंच कथा हमारे आदेशों का पालन करेगा ऐसा मानकर, कण्ठ और तालु सूख जायेंगे इसकी चिन्ता किये बिना ही ऊँचे स्वरों में, सुन्दर वचनों के घटाटोप से ये श्रमण लोक के स्वरूप का प्रकाश (वर्णन) करने वाला, जिसे स्वयं ने नहीं देखा है तब भी मेरे सामने धर्म के गुणों का प्रवचन कर रहे हैं। इसके बाद मेरे चित्त को अपनी ओर आकृष्ट कर ये मेरे से दान दिलवाते हैं, शील ग्रहण करवाते हैं, तपस्या करवाते हैं और भावनाओं का चिन्तन करवाते हैं । उपदेशक पर आशंका असमय ही इन श्रमणों के इस विचित्र वचनाडम्बर का क्या रहस्य है ? अरे हाँ, समझ में आ गया । मेरी अनेक सुन्दर स्त्रियाँ हैं, मेरे पास अनेक प्रकार का धन संग्रह है, विविध धान्यों के बड़े-बड़े भंडार हैं, गाय, भैंस, घोड़ा आदि चतुष्पद और कुप्यादि (बर्तन) सामग्री भी विपुल है । मेरी समस्त सम्पदा की इनको जानकारी हो गई है। सारांश यह है कि इस जानकारी का ये लाभ लेना चाहते हैं। इसीलिये ये कहते हैं :-- तुझे दीक्षित करें, तेरे पापों को नष्ट करें, तेरे कर्मरूपी बीजों को जलादें । तू वेष धारण कर, गुरु के चरणकमलों की पूजा कर, अपनी पत्नी धन-सोना आदि समस्त सर्वस्व गुरु चरणों में न्योछावर कर । यही इनका उद्देश्य जान पड़ता है। पुनः यह जीव कल्पना करता है :-हमारे कथनानुसार आचरण करने से तू पिण्डपात (शरीर छोड़कर) शिव (परमात्मा) बन जाएगा। इस प्रकार अपने मधुर वाग्जाल में फंसाकर, शैवाचार्य के समान ये श्रमरण मुझे ठगेगे । अथवा जैसे ब्राह्मण दुनिया को कहते हैं:- स्वर्णदान महाफलदायक होता है, गोदान से विशिष्ट उत्कर्ष होता है, पृथ्वीदान से अविनाशी होता है, पूर्तधर्म (यज्ञ अथवा कूप खनन) से अतुल फल मिलता है, वेदपारगामी को दान देने से अनन्त गुरणा फल प्राप्त होता है । यदि ब्राह्मण को दूध देने वाली, सद्य प्रसवा, बछड़े वाली, वस्त्रों से सजी हुई, स्वर्णशृगवाली रत्नों से मंडित और पूजा की हुई गाय का दान किया जाए तो दानदाता को चारों समुद्रों से वेष्टित अनेक नगर और ग्रामों से व्याप्त और पर्वतों तथा जंगलों से युक्त पृथ्वी का दान देने के समान फल प्राप्त होता है तथा यह फल अक्षय होता है । इस प्रकार मुग्धजनों को ठगने के लिए शास्त्रों में प्रक्षिप्त श्लोकों तथा काव्यों के द्वारा जैसे ब्राह्मण भोली भाली दुनिया को ठगते हैं वैसे ही ये श्रमण भी मझे ठगकर मेरा धन हरण कर लेंगे। अथवा सून्दरतम विहार (बौद्ध भिक्षुकों के रहने का स्थान) बनवाओ, उन विहारों में बहुश्रुत (पंडित) साधुओं को ठहराओ, संघ की पूजा करो, भिक्षुओं को दक्षिणा दो, संघ के कोषागार में अपना धन मिला दो, संघ के कोष्ठागार में तुम्हारे धान्य के कोठार मिला दो, संघ की संज्ञाति (गोकुल) में अपना ॐ चतुष्पद (चार पैरों वाले) जानवरों को दे दो, बुद्ध-धर्म ॐ पृष्ठ ६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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