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________________ प्रस्ताव १ : पीठबन्ध मुझ से छीन लेंगे या तोड़ देंगे। तब मैं क्या करूं ? सहसा यहाँ से भाग जाऊँ ? या यहीं बैठकर भोजन कर लू? या यह कहकर कि मुझे भिक्षा की कोई प्रावश्यकता नहीं है, निषेध कर यहीं खड़ा रहूँ ? अथवा इन लोगों को झांसा देकर किसी स्थान पर शीघ्रता से छिप जाऊँ ? समझ में नहीं आता कि मैं किस प्रकार इनके जाल से मुक्त होऊँ ? ऐसे अनेक संकल्प-विकल्पों से उसका भय बढ़ गया। भय से उसका गला सूख गया। हृदय व्याकुल हो जाने से वह यह भी भूल गया कि वह कहाँ पाया है और कहाँ बैठा है ? अपने भिक्षापात्र पर उसे इतनी गाढ मूर्छा हो गई कि उसकी रक्षा के लिये वह रौद्रध्यान (दुर्यान) में निमग्न हो गया। इसी दुर्ध्यान में इसकी दोनों माँखें बन्द हो गई। उसके मन पर इन विचारों का इतना प्रबल प्रभाव पड़ा कि उसकी सभी इन्द्रियों के कार्य थोड़ी देर के लिये बन्द हो गये और वह लकड़ी में लगाई हुई कील की भाँति चेतना रहित और सख्त हो गया तथा उसकी सारी हलचल बन्द हो गई। तद्दया वहाँ खड़ी-खड़ी बार-बार उसे भोजन लेने का आग्रह करते-करते थक गई, परन्तु निष्पुण्यक ने उसकी ओर किंचित् भी ध्यान नहीं दिया और वह तो केवल अनेक रोगों को पैदा करने वाले अपने पास रखे हुए तुच्छ भोजन से बढ़कर अच्छा भोजन दुनियाँ में है ही नहीं, कहीं मिल ही नहीं सकता, ऐसे विचारों में इतना फंस गया कि तद्दया द्वारा लाये गये सर्व रोगहारी, अमृत के समान स्वादिष्ट परमान्न भोजन का मूल्य भी वह नहीं समझ सका।" यह सारा कथन जीव के साथ पूर्णतया घटित होता है । इस कथन की जीव के साथ संगति इस प्रकार समझे : मोहमुग्ध के अधम विचार ___ इस जीव का हित करने की दृष्टि से सद्धर्माचार्य धर्म के गुणों का प्रतिपादन करते हुए चार प्रकार के धर्मानुष्ठान करने का उपदेश देते हैं। उस समय यह जीव महा अन्धकारमय मिथ्याज्ञानरूप काच, पटल, तिमिर, कामला (नेत्र की व्याधियाँ) आदि व्याधियों से ग्रस्त होने के कारण विवेकरूपी नेत्रों की ज्योति क्षीण होने से, अनादि काल से संसार में परिभ्रमण का अभ्यस्त होने से, मिथ्यात्व के संताप और उन्माद के कारण भ्रमित हृदय होने से, प्रबल चारित्र-मोहनीय रूप रोग के कारण चेतना विह्वल होने से, विषय धन स्त्री आदि के ऊपर गाढ़ मूळ (प्रगाढ़ मोह) होने के कारण पराभूत चित्तवृत्ति वाला होने से इस प्रकार सोचता है :- मैं पहले जब धर्म क्या है ? अधर्म क्या है ? आदि के विचारों की शोध नहीं करता था तब किसी समय में इन श्रमणों के पास पहुँच भी जाता तो कभी ये मेरे से सीधे मुह बात भी नहीं करते थे। किसी अवसर में ये मुझे धर्म के दो चार शब्द भी सुनाते थे तो वे भी अवगणना से अथवा खीजे हुए भावों से । अभी जब कि मैं इनसे कुछ नहीं पूछ रहा हूँ फिर भी मुझे धर्माधर्म की जिज्ञासा वाला जानकर, यह * पृष्ठ ६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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