________________
७६
उपमिति भव-प्रपंच कथा
समस्त पापों का ( सर्वविरति रूप ) अथवा स्थूल पापों का ( देशविरति रूप) त्याग कर अथवा जितना तेरे से शक्य हो तदनुसार प्रारणातिपात ( हिंसा), मृषावाद ( असत्यवचन), चौर्य वृत्ति, परदारागमन, परिग्रह (अपरिमित वस्तु संग्रह ), रात्रि - भोजन, मद्यपान, माँस-भक्षण, सजीव फलभक्षरण, मित्रद्रोह और गुरुपत्नी- गमन आदि ऐसे अन्य प्रकार के पापों का परित्याग कर, निवृत्त बन । तू यथाशक्ति किसी प्रकार की तपस्या कर । अनवरत शुभभावना रखा कर । इस प्रकार करने से निःसंशय ही इस भव और परभव में तेरा समस्त प्रकार से कल्याण होगा ।
[ १४ ]
तद्दया
पहले कथानक में कह चुके हैं :- " फिर धर्मबोधकर उसको प्रयत्न पूर्वक भिक्षुत्रों के बैठने योग्य स्थान पर ले गया और उसे योग्य दान देने के लिये सेवकों को आज्ञा दी । धर्मबोधकर के तद्दया नामक एक अति सुन्दर पुत्री थी । अपने पिता की आज्ञा को सुनकर वह तुरन्त उठ खड़ी हुई और शीघ्र ही महाकल्याणक खीर लेकर निष्पुण्यक को भोजन कराने उसके पास गई ।" इसकी संगति-योजना ऊपर कर चुके हैं । तदनुसार चार प्रकार के धर्म का वर्णन इस जीव को निकट बुलाने के समान है । इस जीव का चित्त धर्म की ओर आकर्षित हुआ, इसे भिक्षुकों के बैठने योग्य स्थान समझें । धर्मभेद ( दानादि चार भेद ) वर्णनात्मक प्राचार्य के प्रवचन को उसे योग्य दान देने के लिये सेवकों को आज्ञा प्रदान करना समझें । आचार्य की इस जीव पर महती कृपा ही यहाँ तद्दया नामक धर्मबोधकर की पुत्री है । महाकल्याणक परमान्न के समान यहाँ दान- शील-तप-भावरूप चार प्रकार का धर्मानुष्ठान है । धर्माचार्य की कृपा से यह जीव धर्मरूप परमान्न प्राप्त कर सकता है । इसे अन्य किसी साधन से प्राप्त नहीं कर सकता, ऐसा लक्ष्य में रखें ।
दरिद्री को आशंका
कथा प्रसंग में कह चुके हैं :- " उस दरिद्री के विचार अभी भी बहुत तुच्छ थे। अभी भी उसके मन में अनेक शंकाएँ उठ रही थीं । जब उसे भोजन के लिये बुलाया तो वह सोचने लगा । पहले जब मैं भिक्षा के लिये लोगों से याचना करता था तब ये लोग मुझे अनादरपूर्वक दूर भगा देते थे । यदि कभी थोड़ा सा अन्न देते तो भी वह तिरस्कार के साथ । आज ये ही सुवेषधारी राजपुरुष स्वयं श्राकर, मुझे आगे होकर, बुलाकर इतने आग्रहपूर्वक भिक्षा देने के लिये इतना प्रयत्न कर रहे हैं, मुझे प्रलोभित कर रहे हैं । यह क्या आश्चर्य है ? यह बात किसी तरह ठीक नहीं लगती । कहीं मुझे ठगने का प्रयत्न तो नहीं है ? मुझे लगता है कि भिक्षा देने के बहाने कहीं एकान्त में ले जाकर मेरा यह भिक्षा से भरा हुआ पात्र भी
* पृष्ठ ५६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org