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________________ प्रस्ताव १ : पीठबन्ध ७५ शरारती लड़के दूर भाग जाते हैं। कुविकल्पों के दूर होने पर जब यह जीव सद्गुरु की वाणी को सुनने के लिये किंचित् प्रवृत्त होता है तब परहितपरायण सद्धर्माचार्य इस जीव को सम्बोधित करते हुए सन्मार्ग का उपदेश देते हैं । सन्मार्ग देशना हे भद्र ! सूनो । संसार में भटकते हुए जीव पर वात्सल्यभाव को धारण करने वाला यदि कोई पिता है तो वह धर्म है, धर्म ही प्रगाढ़ स्नेहदात्री माता है, धर्म ही अभिन्न हृदय वाला भ्राता है, धर्म ही समान स्नेह रखने वाली बहिन है, धर्म ही समस्त सुखों की खान अनुरागवती और गुणवती भार्या है, धर्म ही विश्वसनीय अनुकूल सर्वकलाओं में कुशल समान प्रीति वाला मित्र है, धर्म ही देवकुमार के समान सुन्दर प्राकृति का धारक और चित्त को अत्यधिक हर्षित करने वाला पुत्र है, धर्म ही शीलरूपी सौन्दर्य गुण से जयपताका फहराने वाली और कुल की उन्नति करने वाली पुत्री है, धर्म ही सदाचारी बन्धुवर्ग है, धर्म ही विनीत परिवार है, धर्म ही राजाधिराज है, धर्म ही चक्रवर्तित्व है, धर्म ही देवत्व है, धर्म ही इन्द्रत्व है, धर्म ही जरा-मरण के विकार से रहित और सुन्दरता में तीन भुवन को तिरस्कृत करने वाला वज्राकार शरीर है, धर्म ही समस्त शास्त्रों के अर्थरूप शुभ शब्दों को ग्रहण करने में चतुर कान है, धर्म ही विश्व को देखने में सक्षम कल्याणदर्शी आँखें हैं, धर्म ही मन को प्रमूदित करने वाली अमूल्य रत्नराशि है, धर्म ही चित्त को प्राह्लादित करने वाला विषघातादि आठ गुणों को धारण करने वाला * स्वर्णपुञ्ज है, धर्म ही शत्रु को पराजित करने में प्रवीण चतुरंग सैन्यबल है और धर्म ही अनन्त रतिसागर (मोक्षसुख) में अवगाहन कराने वाला विलास-स्थान है। अधिक क्या कहें ? धर्म ही अनन्तकाल तक निविन और ऐकान्तिक सुख को प्रदान करने वाला है। धर्म के अतिरिक्त सुख प्राप्त करने का अन्य कोई साधन नहीं है । विशेष उपदेश जब मधुर-भाषी ज्ञानी धर्माचार्य उपदेश दे रहे थे तब इस जीव का चित्त आकृष्ट होने से वह आँखें फाड़-फाड़कर उनकी ओर देखता था। उस समय उसके मुख पर प्रसन्नता झलक रही थी। उसने विक्षेपकारक विकथाओं का त्याग कर दिया था। किसी समय हृदय में शुभभाव जागृत होने पर वह मुस्कराता है, कभी चुटकी बजाता है। उक्त चेष्टाओं से इस जीव को धर्म के प्रति रस पैदा हुआ है ऐसा जानकर प्राचार्य ने पुनः उपदेश देना प्रारम्भ किया। हे सौम्य ! यह धर्म चार प्रकार का है :-१. दानमय, २. शीलमय, ३. तपमय और ४. भावनामय । यदि तुझे सुख प्राप्त करने की प्राकाँक्षा है तो चारों प्रकार के धर्म का तुझे आचरण करना चाहिये । यथाशक्ति सुपात्र को दान दे, के पृष्ठ ५८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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