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________________ ७४ उपमिति-भव-प्रपंच कथा स्वभावी जीव पर भगवद् दर्शन के पश्चात् प्रगाढ़ करुणा लाकर, इस जीव में विशुद्ध मार्ग पर आने की योग्यता है ऐसा निश्चय कर सद्धर्माचार्य उसकी ओर उन्मुख होते हैं। अर्थात् धर्माचार्य इस जीव के समीप जाते हैं। इन भावों को धर्मबोधकर उस दरिद्री के सन्मुख जाता है के साथ तुलना करें। भिक्षादान : तत्त्वानुसन्धान तदनन्तर उस जीव पर प्रसन्न होकर धर्माचार्य उसको कहते हैं :- "हे भद्र! यह लोक अकृत्रिम (शाश्वत) है, काल अनादि अनन्त है, यह आत्मा शाश्वत है, अविनाशी है, संसार का समस्त प्रपंच कर्मजनित है, आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि काल से चला आ रहा है और मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग कर्मबन्धन के कारण हैं। ये कर्म दो प्रकार के हैं -१. कुशलरूप और २. अकुशलरूप, अथवा शुभ और अशुभ । इनमें कुशलरूप शुभकर्म पुण्य अथवा धर्म कहा जाता है और अकुशलरूप अशुभ कर्म पाप अथवा अधर्म कहा जाता है । पुण्य के उदय से सुख का अनुभव होता है और पाप के उदय से दुःख का अनुभव । पाप और पुण्य की तरतमता (कमी-बेशी) से इनके अनन्त भेद होते हैं और उनके भिन्न-भिन्न भेदों के कारण ही जीव अधम, मध्यम, उत्तम आदि अनेक प्रकार के रूप प्राप्त करता है । फलतः विचित्र स्वरूप वाला संसार का समस्त विस्तार कर्मजनित ही है । सद्धर्माचार्य के इस प्रकार के वचन सुनकर, * पूर्वकालीन अनादि कुवासनाओं के कारण यह जीव जो अद्यावधि अनेक प्रकार के कुविकल्प करता रहता था; जैसे कि क्या यह विश्व अण्डे से उत्पन्न हया है ? ईश्वर-कर्तृक है ? ब्रह्मनिर्मित है ? अथवा प्रकृति का विकार है ? अथवा प्रतिक्षण नाशशील है ? क्या पाँच स्कन्धात्मक यह जीव पाँच महाभूतों से उत्पन्न हुआ है ? अथवा मात्र ज्ञान रूप ही है ? अथवा समस्त शून्यरूप ही है ? कर्म है या नहीं? सर्वशक्तिमान ईश्वर के कारण ही समस्त जीव विभिन्न रूप धारण करते हैं ? ऐसे-ऐसे अनेक प्रकार के कुविकल्प उसके मन में होते रहते थे। जैसे भीषण युद्धस्थल में महाबलवान् शत्रुदल को देखकर कायर मनुष्य मैदान से भाग खड़ा होता है वैसे ही इस जीव के पूर्वोक्त कुविकल्प सहज ही दूर हो जाते हैं। ऐसे समय में इस जीव को पूर्ण विश्वास हो जाता है कि ये धर्माचार्य जो कथन करते हैं वह सचमुच स्वीकरणीय है। वस्तुतत्त्व (सत्यासत्य) की परीक्षा करने में ये (धर्माचार्य) मेरे से अधिक वस्तुत्व के जानकार हैं। इसी प्रसंग में कथानक में पहले कह चुके हैं :- "उस समय कुछ शरारती बच्चे निष्पुण्यक को छेड़ने और पीड़ा देने के लिये उसके पीछे पड़े हुए थे, वे सब धर्मबोधकर के शब्द सुनकर भाग गए। [प०१८५] ।" इस कथन की योजना इस प्रकार है :-कुविकल्प ही शरारती बच्चे हैं। ये ही इस जीव को अनेक प्रकार से तिरस्कृत और त्रस्त करते हैं। धर्मबोधकर के समान सद्गुरु के शुभयोग और सम्पर्क से ये कुविकल्परूपी * पृष्ठ ५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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