SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्ताव १ : पीठबन्ध ७३ यहाँ भो साधनभूत हैं । अर्थात् १. स्वकर्मों द्वारा प्रदत्त मार्ग (विवर) और २. भगवत् शासन के प्रति पक्षपात (आकर्षण) अथवा भगवत् शासन के प्रति हार्दिक संतोष । (इन्हीं दोनों कारणों से जीव शासन की ओर अभिमुख होता है)। प्रगति निर्णय पुनश्च धर्मबोधकर ने इस भिखारी के सम्बन्ध में विचार किया :- "ऐसा जान पड़ता है कि यह दरिद्री भिक्षुक का आकार अवश्य धारण किये हुए है, पर अभीअभी * महाराज की जो कृपादृष्टि इस पर हुई है इससे यह अवश्य ही उत्तरोत्तर कल्याण-परम्परा को प्राप्त करता हुआ कालान्तर में वस्तुत्व (राज्य और धन) को प्राप्त कर लेगा, धनाढ्य बन जायेगा।" ऐसा पूर्व में कह चुके हैं। इसी प्रकार धर्माचार्य भी इस जीव पर परमात्मा की कृपादृष्टि पड़ी है ऐसा निश्चय करते हैं और इन विचारों को सन्देह रहित होकर दृढ़ निश्चय करते हैं कि भविष्य में यह उत्तरोत्तर प्रगति करता हुआ परम कल्याण को प्राप्त करेगा। प्राणी पर करुणा ___ जैसा कि कह चुके हैं :- "ऐसा सोचकर धर्मबोधकर के हृदय में भी उस दरिद्री पर करुणा उत्पन्न हुई। लोक में यह कहावत सत्य है :-'यथा राजा तथा प्रजा' अर्थात् राजा का जैसा व्यवहार एक प्राणी पर होता है वैसा ही उस पर प्रजा का होता है।" वैसे ही इस जीव पर परमेश्वर के अनुग्रह को देखकर, जो स्वयं परमात्मा की आराधना करने में तत्पर रहते हैं ऐसे सद्धर्माचार्य भी इस जीव की ओर करुणाभाव से देखते हैं। ऐसे भव्य जीवों पर करुणाभाव दिखाना भी भगवान् की आराधना करना ही है। भिक्षादान की ओर उन्मुख निष्पुण्यक के प्रसंग में पहले कह चुके हैं :-"ऐसा सोचते हुए धर्मबोधकर शीघ्रता से उसके पास आया और उसके प्रति आदर प्रकट करते हुए कहा-आयो ! आओ! मैं तुम्हें (भिक्षा) देता हूँ।" इस प्रकार कहकर उस भिक्षुक को अपने पास बुलाया। इस कथन की संगति इस प्रकार है :-पूर्वोक्त कथन के अनुसार अनादि संसार में भटकते हुए जब इस जीव की भवितव्यता परिपक्व हो जाती है, क्लिष्ट कर्म क्षीण प्राय हो जाते हैं, केवल उनमें से थोड़े से ही कर्म शेष रह जाते हैं, वे शेष कर्म उसे मार्ग देते हैं, मनुष्य भव आदि सामग्री उसे प्राप्त हो जाती है और वह सर्वज्ञ शासन का दर्शन करता है, सर्वज्ञ शासन श्रेष्ठ है ऐसी उसको प्रतीत होती है, पदार्थ ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा होती है, शुभकार्य करने की किंचित् इच्छा होती है तब जिसकी सहज पापकलाएँ अभी भी विद्यमान हैं ऐसे भद्र (सरल) S * पृष्ठ ५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy