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________________ उपमिति भव-प्रपंच कथा ७२ ही तीन भुवन का स्वामी बना देते हैं, अतएव इस जीव पर भगवत्कृपा हुई हो ऐसी सम्भावना ही दृष्टिपथ में नहीं आती । पुनश्च, इस प्रारणी में अभी जो मन वचन काया की सुन्दर प्रवृत्ति दिखाई दे रही है उसका अन्य कोई कारण न दिखाई देने से इस पर भगवान् की कृपादृष्टि पड़ी ही हो, ऐसा निश्चय भी किया जा सकता है । ऐसा मान लेने पर संदेह को दूर करने का एक कारण तो मिल जाता है, किन्तु फिर भी हमारा मन दोलायित है कि यह कंसी आश्चर्यजनक घटना है ? दृष्टिपात के कारण इस प्रकार वस्तुस्थिति का पर्यालोचन करते हुए धर्मबोधकर ने निश्चय किया कि सम्भवतः महानरेन्द्र सुस्थित की इस भिखारी पर दृष्टि पड़ने के दो ही कारण हो सकते हैं । जिन कारणों से इस रंक पर परमेश्वर की दृष्टि पड़ी है इसका निर्णय किया जा सकता है, जो युक्तिसंगत भी है । पहला कारण यह है - सम्यक् प्रकार से परीक्षा करने वाले स्वकर्मविवर द्वारपाल ने इसको यहाँ ( राजमन्दिर में ) प्रवेश करने दिया । इससे यह निश्चित है कि यह महाराजा की विशेष दृष्टि और कृपा के योग्य है । दृष्टिपात का दूसरा कारण यह है - यह नीति तो पूर्व से ही निर्धारित है कि इस राजमन्दिर को देखकर जिसका मन प्रसन्नता से खिल जाता है, ऐसा प्राणी महाराजा को अत्यधिक प्रिय लगता है । राजमन्दिर को देखकर इस जीव को अत्यधिक आनन्द हुग्रा है, स्पष्टतः प्रतीत होता है । क्योंकि, इसकी आँखें अनेक रोग और पीड़ा से आक्रान्त होने पर भी इस राजभवन को पुनः पुनः देखने की इच्छा से प्रतिक्षरण खुलती रहती हैं. प्रभुकृपा के सम्पादन से इसका बीभत्स मुख भी सहसा दर्शनीय प्रतीत हो रहा है, इसके धूलिधूसरित शरीर के सारे अंग भी रोमराजि विकसित हो जाने से पुलकित ( रोमांचित ) दिखाई दे रहे हैं । ये सारी स्थितियाँ अन्तर के आनन्द के बिना हो ही नहीं सकती । प्रतएव स्पष्ट है कि राजमन्दिर के प्रति प्रीतिभाव ही महाराज की कृपा का कारण है । इसी प्रकार सद्धर्माचार्य भी इस जीव के विषय में पूर्वापर विचार करते हुए इस प्रकार कल्पना करते हैं किजब सद्धर्माचार्य विचारपूर्वक इस जीव के सम्बन्ध में लक्ष्य करते हैं तब उन्हें प्रतीत होता है कि इस प्राणी के कर्मों ने ही इसे विवर ( मार्ग ) दिया है और भगवत् शासन को प्राप्त कर इसका मन प्रसन्नता से भर गया है । यही कारण है कि बारंबार आँखें खोलता बन्द करता हुआ जीव, अजीव प्रादि पदार्थों की ओर जिज्ञासा बुद्धि से देखता है, प्रवचन ( शास्त्रों) का अर्थलेश समझ में आने के कारण ही संवेग तत्त्व के दर्शन से इसका प्रसन्न मुख दिखाई देता है और श्रेष्ठ अनुष्ठान की किंचित् प्रवृत्ति होने के कारण ही इसका धूलि धूसरित अंग भी रोमांचित प्रतीत हो रहा है । इन लक्षणों से यह निश्चित है कि इस जीव पर भगवान् का विशेष रूप से अनुग्रह हुआ है । इन कारणों से स्पष्ट है कि, धर्माचार्य द्वारा भी इस जीव के सम्बन्ध में निश्चय करने के लिए पूर्वोक्त दोनों ही कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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