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________________ प्रस्ताव : १ पीठबन्ध उपदेश करने वाले आचार्य महाराज ने मेरे ऊपर जिनेश्वर देव की कृपादृष्टि को पडते हुए देखा, ऐसा समझे। जिन योगी महात्माओं की आत्मा विशुद्ध ध्यान से निर्मल होती है और जो दूसरों का हितसाधन करने में तत्पर रहते हैं वे देश-काल से व्यवहित जीवों की भगवत् अवलोकन की योग्यता को भी जान सकते हैं। छद्मस्थ होने पर भी विशुद्ध बुद्धि के कारण निकटस्थ प्राणियों की योग्यता की पहचान कर सकते हैं। जब सामान्य श्रुतज्ञानी भी उपयोग पूर्वक विचार कर योग्यताअयोग्यता का निर्धारण कर सकते हैं, तो फिर विशिष्ट ज्ञानियों की तो बात ही वया ? मुझे सदुपदेश देने वाले प्राचार्य भगवान् तो विशिष्ट ज्ञानी थे, क्योंकि मेरे सम्बन्ध में भविष्य में होने वाले वृत्तान्त को वे पहले ही जान चुके थे । इनके द्वारा ज्ञात वृत्तान्त का तो मैंने स्वयं ने अनुभव किया है, अतएव ये सब वृत्तान्त मेरे द्वारा अनुभूत सिद्ध हैं। धर्मबोधकर की शंका जैसा कि पहले कह चुके हैं :- "उस समय वह (धर्मबोधकर) साश्चर्य श्राशयपूर्वक विचार करने लगा कि, मैं यह कैसी अद्भुत नवीन घटना देख रहा हूँ। जिस पर महाराज की विशेष रूप से दृष्टि पड़ जाती है वह तो तुरन्त ही तीनों लोकों का राजा हो जाता है। यह निष्पुण्यक तो भिखारी है, रंक है, इसका पूरा शरीर रोगों से भरा हुआ है, लक्ष्मी के अयोग्य है, मूर्ख है और सम्पूर्ण जगत् में उद्वेग उत्पन्न करने वाला है। अच्छी तरह से विचार करने पर भी यह कुछ समझ में नहीं आता कि ऐसे दीन रंक पर महाराज की कृपादृष्टि क्योंकर हुई ?" पुनः वह विचार करने लगा :- "अत्यन्त भाग्यहीन मनुष्यों के घर में अमूल्य रत्नों की वृद्धि नहीं होती फिर यह विस्मयकारक घटना कैसे घटित हुई ?" वैसे ही इस जीव के सम्बन्ध में सद्धर्माचार्य के मन में जो विचार उत्पन्न होते हैं, उनकी योजना इस प्रकार है:-यह जीव पूर्वावस्था में गुरुकर्मी (कर्मभार से भारी) होने के कारण समस्त प्रकार के पाप कर्म करता था, सब प्रकार के असभ्य और असत्य वचन बोलता था और अनवरत रौद्रध्यान करता रहता था। जब यही जीव अच्छे निमित्तों को प्राप्त कर, अच्छे आचरण वाला, सत्य और प्रियभाषी तथा प्रशान्तचित्त नजर आता है तब पूर्वापर विचार करने में चतुर विवेकीजनों के हृदय में स्वाभाविक रूप से ये विचार उत्पन्न होते हैं कि, सद्धर्म की साधक मन वचन काया की श्रेष्ठ प्रवृत्ति भगवत् अनुग्रह के बिना कदापि प्राप्त नहीं हो सकती। और, हमने तो इस जीव का इसी भव में ही अधमता पूर्ण मन वचन काया का व्यापार देखा है, अतएव इसकी ये दोनों स्थितियाँ पूर्वापर विरुद्ध दिखाई देती हैं। समझ में नहीं आता कि ऐसे निकृष्ट पापों से उपहत जीव पर भगवान् का अनुग्रह कैसे हो सकता है ? क्योंकि यदि भगवान् का अनुग्रह हो जाता है तो वे उस जीव को मोक्ष प्राप्त करवाकर ॐ शीघ्र * पृष्ठ ५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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