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________________ ७० उपमिति-भव-प्रपंच कथा में मग्न रहते हैं। संसार में इन्द्रियजन्य भोगों का आनन्द वस्तुत: विडम्बना रूप होने के कारण आनन्द ही नहीं है और भोगरूपी आनन्द को भोगने वाला उस प्रानन्द के स्वरूप को समझता भी नहीं है। भगवत्कृपा जैसे महाराजा ने अनेक रोगों से ग्रस्त और बीभत्स रूप वाले उस निष्पण्यक दरिद्री को करुणा दृष्टि से देखा वैसे ही जब यह प्राणी सवयं की निजभव्यता का परिपाक होने पर. उन्नति के पथ पर क्रमशः आगे-आगे बढ़ता जाता है तब उसके ऊपर भगवान् का अनुग्रह होता है; क्योंकि भगवत्कृपा के बिना मार्गानुसारिता प्राप्त नहीं होती। उनका अनुग्रह होने पर ही भगवन्तों के प्रति भावपूर्वक बहुमान की भावना होती है, अन्यथा नहीं; क्योंकि इसमें कर्मों का क्षय अथवा उपशम अथवा अन्य कारण या साधन गौरण होते हैं। प्रगति के लिए कर्मक्षय अथवा उपशम भावश्यक अवश्य हैं किन्तु तज्जन्य विकास स्थायी नहीं होता। अर्थात् ऊपर-ऊपर की प्रगति फलदायक नहीं होती । वस्तुतः भगवद् अनुग्रह होने पर ही जीव का वास्तविक विकास होता है। इसी बात को ध्यान में रखकर यह कहा गया है कि इस जीव पर जिनेश्वर देव ने विशेष रूप से कृपापूर्ण दृष्टि डाली । ये परमेश्वर ही अचिन्त्य शक्ति के धारक और परमार्थ करने में तल्लीन होने के कारण इस जीव को मोक्षमार्ग की अोर प्रवृत्त करने में श्रेष्ठ हेतु (कारण-साधन) हैं । ये निराकार होने पर भी समग्र विश्व के समस्त जीवों का कल्याण करने की पूर्ण क्षमता रखते हैं, अर्थात् रूपरहित होने पर भी इनके पालम्बन से भव्य जीव मोक्ष में जा सकते हैं । तथापि उस प्राणी का भव्यत्व, कर्म, काल, स्वभाव और नियति आदि सहकारी कार्य-कारणों को ध्यान में रखते हुए ही वे जगत् पर उपकार करने में प्रवृत्त होते हैं । यही कारण है कि एक साथ सब प्राणी मोक्ष नहीं जा सकते । अर्थात जिस जीव के काल, स्वभाव आदि कारण परिपाक दशा को प्राप्त होते हैं वे ही प्राणी प्रगति की ओर अग्रसर होते हैं और उन्हीं जीवों पर भगवान् की दृष्टि पड़ती है। जिस जीव का कल्याण होने वाला है और जो भद्रिक परिणामी है उन्हीं पर भगवान् का अनुग्रह होता है। इस कथन को आगमानुसार समझे । [१३] धर्मबोधकर की विचारणा ___ कथन कर चुके हैं : -- “सुस्थित महाराज ने अपने भोजनालय की देखरेख के लिए धर्मबोधकर नामक राज्यसेवक को नियुक्त कर रखा था। उसने जब देखा कि दरिद्री पर महाराज की कृपादृष्टि हुई है।" इसका तात्पर्य यह है कि धर्म का बोध करने में तत्पर होने से धर्मबोधकर यथार्थ नाम के धारक और मुझे सन्मार्ग का * पृष्ठ ५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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