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प्रस्ताव १: पीठबन्ध
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किया हो, अथवा ग्रन्थिभेद कर सम्यक दर्शन प्राप्त करने की स्थिति में आ गए हों
और जो कितने ही समय से भद्र (सरल) स्वभाव को धारण कर रहे हों। सम्यक्त्व प्राप्ति के पूर्व प्राणी की ऐसी दशा होती है, उसी का यहाँ विस्तार से दिग्दर्शन कराने का प्रयत्न किया है।
[१२] महाराज सुस्थित का दृष्टिपात
तदनन्तर समग्र कल्याणों के कारणभूत परमेश्वर की दृष्टि इस जीव पर । पड़ती है, इस प्रसंग में कथानक में कह चुके हैं :--"निष्पूण्यक दरिद्री को कुछ चेतना प्राप्त होने पर, जब उसके मन में उपर्युक्त विचार चल रहे थे, तभी वहाँ जो कुछ भी घटित हुआ, उसे आप सुनें- इस राजमन्दिर की सातवीं मंजिल पर सबसे ऊपर के भवन में सततानन्दी लीला में लीन सुस्थित नामक महाराज विराजमान थे। महाराज वहीं से बैठे हए आनन्द में व्यस्त नगरवासियों की दिनचर्या व * कार्यकलापों का तथा नगर का अवलोकन कर रहे थे। इस नगर या नगर के बाहर ऐसी कोई वस्तु, घटना या भाव नहीं था जिसे सातवीं मंजिल पर बैठे सुस्थित महाराज न देख सकते हों। अत्यन्त बीभत्स दिखाई देने वाले, अनेक भयंकर रोगों से ग्रसित, सद्गृहस्थों के हृदय में दया उत्पन्न करने वाले निष्पुण्यक दरिद्री पर उसके मन्दिर में प्रवेश करते समय ही उनकी निर्मल दृष्टि पड़ गई थी। महाराज की करुणा से प्रोतप्रोत निर्मल दृष्टि पड़ते ही इस दरिद्री के कितने ही पाप धुल गये थे।" इस कथन की संगति और तुलना निम्न प्रकार है :- इस जीव के जब कर्म किंचित् क्षीण होते हैं, सरल स्वभाव होता है तब वह मार्गानुसारी गुरणों की ओर बढ़ता जाता है। योग्यता की भूमि पर जब जीव पहुँचता है तब ही परमात्मा की दृष्टि उस पर पड़ती है। जीव के लिये यह संयोग (घटना) अद्भुत और आश्चर्यकारी होती है । यहाँ महाराज को निराकार (कर्मरहित एवं शरीर रहित) अवस्था में रहने वाले परमात्मा, भगवान्, सर्वज्ञ समझे। ये परमात्मा इस मर्त्यलोक की अपेक्षा से एक दूसरे पर निर्मित मंजिलों के समान सात राजलोकरूप लोकप्रसाद शिखर पर निवास करते हैं। लोक के अन्त में सिद्धशिला पर विराजमान परमेश्वर अहष्टमूलपर्यन्त नगर के भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यापारों के साथ तुलना योग्य इस समस्त संसार के विस्तार को एक समय में एक साथ ही देख सकते हैं। इतना ही नहीं, किन्तु चौदह राजलोक के बाहर अलोक में रहने वाले आकाश द्रव्य को देखने की भी उन में शक्ति होती है । लोकालोक के समस्त भावों को प्रत्यक्ष कराने वाला केवलज्ञान होने से वे नगर के और नगर बाहिर के समस्त भावों को हस्तामलक न्याय से देख सकते हैं । अनन्तवीर्य और अनन्त सुख से परिपूर्ण होने के कारण वे सर्वदा वास्तविक आनन्द का अनुभव करते रहते हैं और तद्रूप लीला
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