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________________ उपमिति-भव-प्रपंच कथा साधन करने में तत्पर हों, ऐसे दृष्टिगोचर होते हैं। अतएव यह सर्वज्ञ मन्दिर श्रेष्ठतम है, ऐसा में आज ही जान सका। विचारशक्ति के अभाव में इसकी सुन्दरता को आज से पूर्व कभी नहीं पहचान सका। यह जीव अनन्तवार ग्रन्थि प्रदेश तक पहुँचा भी, किन्तु ग्रन्थिभेद न करने के कारण इस सर्वज्ञ शासन का इसने कभी अवलोकन नहीं किया; क्योंकि राग-द्वष-मोहादि रूपी कर द्वारपाल इस जीव को बारम्बार वहाँ से दूर भगा देते थे । फलतः यह जीव इस शासन मन्दिर का अंशमात्र ही देख पाया, परन्तु मन्दिर के जिस विभाग में सम्यक्त्व प्राप्त होता है उस खण्ड को वह आज तक नहीं जान पाया और न उसने कभी इस सम्बन्ध में विचार ही किया ।* जिज्ञासा : स्फुरणा ___ पूर्व में कह चुके हैं कि उस दरिद्री को पुनः पुनः विचार करने पर इस प्रकार की स्फुरणा जागृत हुई : -- "जैसा मेरा नाम निष्पुण्यक है वैसा ही मैं पुण्यहीन भी हूँ क्योंकि देवताओं को भी अलभ्य ऐसे सुन्दर राजमन्दिर को पहले न तो मैं कभी देख सका और न कभी देखने का प्रयत्न ही किया। मेरी विचारशक्ति इतनी मोहग्रस्त और मन्द हो गई थी कि, यह राजमन्दिर कैसा होगा ? इसको जानने की जिज्ञासा तक मेरे मन में कभी भी उत्पन्न नहीं हुई । चित्त को आह्लादित करने वाले इस सुन्दर राजभवन को दिखाने की कृपा करने वाला यह द्वारपाल वास्तव में मेरा बन्धु है। मैं निर्भागी हूँ, फिर भी मुझ पर इसकी बड़ी कृपा है । सब प्रकार के संक्लेश से रहित होकर, परिपूर्ण हर्ष से इस भवन में रहकर जो लोग आनन्द भोग रहे हैं, वे वास्तव में भाग्यशाली हैं।" इस कथन की योजना इस प्रकार है :किसी समय तीर्थंकरों के समवसरण का दर्शन करने से, जिनेश्वरों के स्नात्र महोत्सव का अवलोकन करने से, वीतराग भगवान् का बिम्ब (प्रतिमा) देखने से, शान्त तपस्वीजनों का साक्षात्कार करने से, अथवा शुद्ध (सम्यक्त्व धारक) श्रावकों की संगति करने से, अथवा उनके द्वारा विहित अनुष्ठानों को देखने से इस प्राणी के अध्यवसाय शुभ ध्यान के कारण विशुद्ध हो जाते हैं, मिथ्यात्वभाव दूर खिसक जाता है और भावों में सरलता एवं मृदुता आ जाती है । ऐसे प्रसंगों पर इस जीव को जब सर्वज्ञ दर्शन गोचर हुअा हो, तब उसे ऐसे विचार आते हैं और इन विचारों पर उसे प्रीति होती है । आज तक ऐसे सुन्दर विचार करने का अवसर न मिलने के कारण उसके मन में खेद होता है । फलतः इस मार्ग के उपदेशकों को बन्धु की बुद्धि से ग्रहण करता है और इस मार्ग का अनुसरण करने वालों के प्रति उसके हृदय में बहुमान के भाव जागृत होते हैं। इस प्रकार की विचार सररिण उन्हीं जीवों की होती है जो लघुकर्मी जीव सन्मार्ग के निकट आये हों और जिन्होंने ग्रन्थिभेद न * पृष्ठ ५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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