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प्रस्ताव : १ पीठबन्ध
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शघ्र ही मोक्ष प्राप्त कराने वाले जैनेन्द्र शासन मन्दिर में विशुद्ध भाव से स्थिरता करें। इस शासन में रहने वाले प्राणियों को ये सुन्दर भोग तो अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं, इनको प्राप्त कराने वाला अन्य कोई हेतु (कारण) नहीं है । अतएव* परम्परा (क्रमश:) अप्रतिपाति (कदापि क्षय न होने वाले) सुख को प्रदान करने का मुख्य कारण होने से पारमेश्वर दर्शन मन्दिर निरन्तर उत्सवमय है, ऐसा कहा गया है । पूर्वोक्त कथानक में निष्पुण्यक ने जिस प्रकार सर्व विशेषणों से युक्त राजमन्दिर को देखा उसी प्रकार समस्त विशेषणों से युक्त सर्वज्ञ शासन मन्दिर को यह जीव देखता है।
[११] मन्दिर दर्शन : स्फुरणा
___कथा प्रसंग में कह चुके हैं :-"तात्त्विक दृष्टि से सब इन्द्रियों के निर्वाण का कारण भूत ऐसे अद्भुत राजमन्दिर को देखकर वह भिखारी आश्चर्यचकित होकर सोचने लगा कि, यह क्या है ? अभी तक उन्मादग्रस्त होने से वह राजमन्दिर के तात्त्विक स्वरूप को पहचान नहीं सका।" इसी प्रकार यह जीव कर्मविवर (मार्ग) प्राप्त होने पर, बड़ो कठिनाई से सर्वज्ञ शासन को प्राप्त कर, यह क्या है ? जानने की जिज्ञासा करता है, परन्तु उन्माद से तुलना करने योग्य मिथ्यात्व (विपरीत बुद्धि) के अंश जब तक प्रचुर मात्रा में विद्यमान रहते हैं तब तक वह जीव जिनमत के विशिष्ट गुरणों को तत्त्वत; पहचान नहीं पाता।
___ कथानक में कह चुके हैं :- "पर धीरे-धीरे चेतना प्राप्त होने पर वह सोचने लगा कि इस राजमन्दिर में निरन्तर उत्सव होते रहते हैं, पर द्वारपाल की कृपादृष्टि से आज ही मैं इसे देखने में समर्थ हो सका हूँ, जो आज से पहले मैं कभी नहीं देख सका था। मुझे याद आ रहा है कि, मैं कई बार भटकते हुए इस राजमन्दिर के दरवाजे तक पाया हूँ, पर दरवाजे के निकट पहुँचते-पहुँचते ये महापापी द्वारपाल मुझे धक्के देकर वहाँ से भगा देते थे।" इस कथन की संगति जीव के साथ इस प्रकार है :-- निकट भविष्य में जिनका कल्याण होने वाला है ऐसे भव्यप्रासी किसी प्रकार सर्वज्ञ शासन को प्राप्त तो कर लेते हैं परन्तु उसके विशिष्ट गुरगों की उन्हें जानकारी नहीं होती। फिर भी मार्गानुसारी होने से उनके हृदय में इस प्रकार के विचार उत्पन्न होते हैं-अहो ! अर्हद्-दर्शन अत्यन्त अद्भुत है, यहाँ जो निवास करते हैं वे मानों मित्र हों, बन्धु हों, समान प्रयोजन वाले हों, समर्पित हृदय वाले हों, एकात्मीभूत हों-इस प्रकार का परस्पर व्यवहार करते हैं। ये मानों, अमृत का पान कर तृप्त हो गए हों, उद्वेग रहित हों, औत्सुक्य रहित हों, उत्साह से भरपूर हों, परिपूर्ण मनोरथ वाले हों और सर्वदा समस्त विश्व के समग्र प्राणियों का हित
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