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________________ प्रस्ताव : १ पीठबन्ध तपस्वी, ग्लान, क्षुल्लक, स्वधर्मी, कुल, गण, संघ) की वैयावच्च (सेवा-शुश्रुषा) करने रूप अनुष्ठान के माध्यम से सर्वदा नृत्य करते रहते हैं। तीर्थंकरों के जन्माभिषेक, संमवसरण, पूजा, रथयात्रादि महोत्सवों को सम्पादन करने के माध्यम से सर्वदा कूदते रहते हैं। अन्य प्रतिवादियों की युक्तियों का चतुराई से निराकरण करने के पश्चात् (अर्थात् विजय प्राप्त कर) चित्तानन्द के बहाने उत्कृष्ट सिंहनाद आदि अनेक प्रकार की गर्जना करते हैं। किसी समय में तीर्थंकर, भगवन्तों के च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण इन पाँच कल्याणकों के महोत्सवों के माध्यम से हर्षित होकर मर्दल (मादल) आदि वाजित्र बजाते हैं। इस प्रकार मौनीन्द्र शासन में सर्वदा आनन्द ही आनन्द छाया रहता है और इस शासन में रहने से समस्त प्रकार के सन्ताप नष्ट हो जाते हैं। इस जैनेन्द्र शासन को इस जीव ने कभी भी भावपूर्वक रवीकार किया हो ऐसा प्रतीत नहीं होता, क्योंकि इस जीव का संसार में परिभ्रमण अभी तक विद्यमान है। यदि इस जीव ने इस शासन को शुद्ध भाव से स्वीकार किया होता तो कभी की ही इसको मोक्ष की प्राप्ति हो गई होती। पूर्व कथा में राजभवन के दो विशेषण कहे गये थे - १. अदृष्टपूर्व और २. अनन्त विभूति सम्पन्न । राजमन्दिर के इन दोनों विशेषणों की तुलना सर्वज्ञ शासन मन्दिर के साथ सम्यक् प्रकार से मेल खाती है । राजमन्दिर के राजा - पूर्व में राजमन्दिर के विशेषणों में कहा गया है- 'राजा, प्रधान (मंत्री), सेनापति, कामदार और कोतवाल आदि से अधिष्ठित था।' इन विशेषणों की तुलना इस प्रकार है :-जिनेश्वर देव के शासन मन्दिर में प्राचार्यों को राजा समझे। जिनके अन्तर्वलित महातप के तेज से रागादि शत्रुवर्ग पलायन कर गये हैं, जिनके बाह्य-व्यापार शान्त हो गये हैं और जो जगत् को आनन्द प्रदान करने के साधन हैं। जैसे राजागण रत्नों से भरपूर और प्रभुत्व सम्पन्न होते हैं वैसे ही ये प्राचार्यगरण भी जण रत्नों के भण्डार और प्रभूत्व सम्पन्न होते हैं। अतएव इनके लिए राजा शब्द का प्रयोग सर्वथा उचित है । राजमन्दिर के मन्त्री मन्त्रियों के वर्णन प्रसंग में पहले कह चुके हैं - 'संपूर्ण जगत् की चेष्टाओं को जानने वाले, स्वबुद्धि से अपने शत्रुओं को भली प्रकार पहचानने वाले और सम्पूर्ण नीतिशास्त्रों में पारंगत अनेक मन्त्री भी वहाँ निवास करते थे।' इसको संगति इस प्रकार है : सर्वज्ञ शासन में उपाध्यायों को मन्त्री समझे। वीतराग प्रणीत आगम रहस्य के ज्ञाता होने के कारण जो समस्त जगत् के व्यापारों को स्पष्टतया जानते हैं, जो प्रज्ञाबल से रागादि अन्तरंग शत्रु वर्ग को पहचानते हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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