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________________ उपमिति-भव-प्रपंच कथा कर देते हैं, तिर्यञ्च गति के कारागृह को भग्न कर देते हैं, अधम मानवता के दुःखों का दलन कर देते हैं, तुच्छ जाति के देवों के मन में होने वाले सन्तापों का मर्दन कर देते हैं, मिथ्यात्व रूपी वैताल का नाश कर देते हैं, रागादि शत्रुओं को निष्पन्दित कर देते हैं, कर्मसंचय रूप अजीर्ण को जीर्ण (शक्ति रहित) कर देते हैं, वृद्धावस्था के विकारों को तिरस्कृत कर देते हैं, मृत्युभय को हँसी में उड़ा देते हैं और देवलोक तथा मोक्ष के सुखों को हस्तामलक कर लेते हैं। अथवा इस दर्शन का आचरण करने वाले भव्य प्राणी सांसारिक सुखों की अवगणना करते हैं, इन सुखों की आवश्यकता का किंचित् भी अनुभव नहीं करते, अपनी बुद्धि से संसार के समस्त प्रपंचों को हेय दृष्टि से देखते हैं और मोक्ष प्राप्ति के लिए तन्मयता पूर्वक अपने अन्तःकरण को उसकी ओर उन्मुख कर देते हैं। मुझे परमपद प्राप्त होगा, इस सम्बन्ध में उन्हें किसी प्रकार का संदेह नहीं रहता, क्योंकि उपाय और उपेय परस्पर विरुद्ध नहीं होते । वे समझते हैं कि परमपद की प्राप्ति के लिए सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही एकमात्र मार्ग है और यह मार्ग अप्रतिहत शक्ति वाला है। * ऐसा प्रशस्त मार्ग उन्हें मिल जाने से उनको दृढ़ निश्चय हो गया है कि, इससे अधिक प्राप्त करने को कुछ भी शेष नहीं रहा, मेरे सारे मनोरथ पूर्ण हो गये। इन विचारों से उनको पूर्णतया मानसिक तोष प्राप्त होता है। (यह गोशीर्ष चन्दन के विलेपन से प्राप्त शान्ति और सम्यग् दर्शन प्राप्त भव्यों की मानसिक शान्ति की तुलना है।) रत्नत्रयी का मार्ग प्राप्त करने के पश्चात् पारमेश्वर मत के भव्य उपासकों को कदापि शोक नहीं होता, दैन्यभाव नहीं होता, उनकी उत्सुकता विलीन हो जाती है, काम-विकार नष्ट हो जाते हैं, जुगुप्सा के प्रति घृणा हो जाती है अर्थात् किसी भी वस्तु या प्राणी के प्रति जुगुप्सा के भाव नहीं जगते, उन्हें कदापि चित्तोद्व ग नहीं होता, तृष्णा कोसों दूर भाग जाती है और वे त्रास-पीड़ा को समूल नष्ट कर देते हैं। अधिक क्या ? उनके मन में धैर्य रहता है, गम्भीरता निवास करतो है, अतिप्रबल दार्य होता है, प्रबल आत्म-विश्वास होता है और स्वाभाविक प्रशम-सुखरूपी अमृत का अनवरत प्रास्वादन करते रहने से उनके हृदय में सर्वदा उत्सव चलते रहते हैं। इसी कारण उनकी राग-प्रबलता मन्द हो जाती है, रतिप्रकर्ष अर्थात् शुभराग-गुरणानुराग बढ़ जाते हैं, मद-अहंकाररूपी व्याधि नष्ट हो जाती है, मन में सर्वदा प्रफुल्लता रहती है, आयुधों द्वारा नष्ट करने वालों और विलेपन करने वालों पर जैसे चंदन की दृष्टि सम रहती है वैसी ही सम दृष्टि होने से उनका आनन्द कभी नष्ट नहीं होता। जैनेन्द्र शासन में स्थित भव्य-प्राणी स्वाभाविक हर्षातिरेक से प्रमुदित होकर पाँच प्रकार के स्वाध्याय (वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा, धर्मकथा) के माध्यम से सर्वदा गाते रहते हैं। प्राचार्यादि दश (आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, * पृष्ठ ४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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