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________________ प्रस्ताव :१ पीठबन्ध शब्दादि इन्द्रिय विषयों के भोगों से भरपूर तथा जहाँ सर्वदा उत्सव होते रहते हैं, ऐसा राजमन्दिर देखा ।" इसी प्रकार इस जीव ने संसारचक्र में परिभ्रमण करते हुए आज तक वज्र के समान दुर्भद्य और क्लिष्टतम कर्म की जटिल गांठ का भेदन (ग्रन्थिभेद) नहीं किया था। उसे स्वकर्मविवर प्राप्त होने से ग्रन्थिभेद कर जब वह सर्वज्ञ-शासन के मन्दिर में प्रवेश करता है तब उसे यह सर्वज्ञ-शासन मन्दिर उस राजमन्दिर के समान ही ऐश्वर्यादि विशेषणों से युक्त प्रतीत होता है । तुलना इस प्रकार है : इस मौनीन्द्र (जिनेश्वर) शासन में अज्ञानरूपी अन्धकार पटल के प्रसार का नाश करने वाले, ज्ञान रूपी विविध प्रकार के रत्नपुञ्जों को धारण करने वाले, जाज्वल्यमान निर्मल प्रकाश से तीन भवन के समस्त प्रदेशों को प्रकाशित करने वाले विशिष्ट प्रकार के ज्ञान दृष्टिगोचर होते हैं । यहाँ भगवान् के प्रवचन में मुनिपुङ्गवों के शरीर को शोभित करने वाली, रमणीय मणि-रत्नों से जड़ित श्रेष्ठ आभूषणों की सुन्दराकृति को धारण करने वाली प्रामर्ष औषधि आदि अनेक प्रकार की लब्धियाँ विद्यमान हैं । इस जिन शासन में अत्यधिक सुन्दर होने के कारण चित्र-विचित्र वस्त्रों के आकार को धारण करने वाले अनेक प्रकार के तप सज्जन पुरुषों के हृदय को आकर्षित करते हैं। इस परमेश्वर-मत में चपल उज्ज्वल वस्त्रों के चंदरवों में सुन्दर रचना और सम्यक् प्रकार से गुम्फित लटकते हुए मोतियों के गुच्छों को धारण करने वाले चरण-करण रूप मूल गुरण और उत्तर गुरण चित्त को आह्लादित करते हैं। शासन प्राप्ति का फल ऐसे जैनेन्द्र शासन में तदनुकूल आचरण करने वाले भाग्यशाली प्राणियों के सत्यवचन ताम्बूल के समान हैं। जैसे ताम्बूल मुख की शोभा है, मुख को सुगन्धित करता है और चित्त को आह्लादित करता है वैसे ही उनके उदार सत्यवचन श्रेष्ठत्व की सुगन्ध फैलाते हैं और मन को आनन्दित करने वाले हैं। जैन शासन में मनोरम पुष्पपुञ्जों की आकृति को धारण करने वाले अठारह हजार शीलांग (अत्युत्तम चारित्र के अंग) अपनी सुगन्धि को समस्त दिशाओं में फैलाते हैं। जैसे फूलों का समूह भ्रमरों को आनन्दित करता है वैसे ही ये शीलांग "मुनिपुङ्गवरूपी भ्रमरों को प्रमुदित करते हैं और जैसे फूलों को गूथा जाता है वैसे ही ये शीलांग भी चित्रविचित्र प्रकार की रचना से गुम्फित किये जाते हैं। पारमेश्वर मत में सम्यक् दर्शन गोशीर्ष चन्दन के विलेपन के समान है। जैसे गोशोष चन्दन का शरीर पर विलेपन करने से मानव को शो तलता प्राप्त होती है, वैसे ही यह सम्यग् दर्शन, मिथ्यात्व और कषायों के संतापों से जलते हुए भव्यजीवों के शरीर को अत्यन्त शीतलता प्रदान करते हैं। इस प्रकार सर्वज्ञभाषित जैन दर्शन में सम्यग् ज्ञान, सम्यग दर्शन और सम्या चारित्र की प्रधानता है। जो भाग्यशाली प्राणी सर्वज्ञ-वारणी के अनुसार आचरण करते हैं वे अपने लिए नरक के अन्धकूप में पड़ने का मार्ग बन्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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