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प्रस्ताव १ : पीठबन्ध
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[७] उस दरिद्री के प्रसंग में आगे क्या हुआ ? अब इसका वर्णन करते हैं :
- इस कथा-प्रबन्ध का विषय तीन काल का है, अतः भूत-भविष्य-वर्तमान काल को ध्यान में रखकर क्रियापदों का विभिन्न रूप में प्रयोग किया गया है, किन्तु उनका आशय एक समान ही है। व्याकरणवेत्ताओं के अनुसार कथन करने वाले की विवक्षा के अनुसार ही कारक की प्रवृत्ति होती है और कारक के अनुसार ही काल की प्रवृत्ति होती है। कारक (कर्ता) के समान काल का भी एक स्वरूप वाली वस्तु में, वस्तु को स्थिति के परिवर्तन से विभिन्न प्रकार से प्रयोग किया जाता है। यह प्रवृत्ति देखी भी जाती है और अभीष्ट भी है। जैसे यह मार्ग पाटलिपुत्र जाता है, इस मार्ग में पाटलिपुत्र से पहले वहाँ कुआ था/हुआ करता था/कभी था/होगा| रहेगा, इत्यादि काल के रूप एक कुए के लिए ही हैं, किन्तु विवक्षा के अनुसार इनका प्रयोग भिन्न-भिन्न रूपों में किया जा सकता है और यह पद्धति उपयुक्त भी है, अस्तु ।
सुस्थित महाराज और स्वकर्मविवर द्वारपाल
'इस नगर में सस्थित नामक एक प्रख्यात महाराजा राज्य करता था, जो स्वभाव से ही सब प्राणियों पर अत्यधिक प्रेम रखने वाला था।' ऐसा पूर्व में कहा है। इस सुस्थित राजा को ही यहाँ परमात्मा, जिनेश्वर, सर्वज्ञ, भगवान् समझे । समस्त प्रकार के क्लेश नष्ट हो जाने से, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्तवीर्य के धारक होने से, सर्वतन्त्र स्वतन्त्र और अतिशय * अनन्त आनन्दसिन्धु स्वरूप होने से जिनेश्वर ही वास्तविक रूप में सुस्थित नाम के योग्य हैं। अविद्या, अज्ञान आदि क्लेश-समूहों के अधीन रहने वाले अन्य कोई भी इस नाम के योग्य नहीं हैं; क्योंकि मिथ्यात्व के कारण वे दुःस्थित (दुःख की स्थिति में रहने वाले) हैं। ये भगवान् समस्त प्राणीवर्ग का अत्यन्त सूक्ष्मरूप से रक्षण करने का उपदेश देते हैं, मोक्ष की प्राप्ति शीघ्र ही हो सके ऐसा कुशलता के साथ सिद्धान्त-मार्ग का प्रवचन करते हैं और वे स्वभाव से ही अत्यन्त वात्सल्य भाव से सराबोर हृदय के धारक हैं। मनुष्य और देवताओं के अधिपति चक्रवर्ती और इन्द्रादिक से अधिक कीर्ति के धारक होने से इन्हें प्रख्यात कहा गया है, क्योंकि देव और मनुष्य भी प्रशस्त मन वचन काय के योग में प्रवृत्त होकर अनवरत इनकी स्तुति करते हैं, अतएव सर्वज्ञ भगवान् ही महाराज शब्द को धारण करने के योग्य हैं।
कथा प्रसंग में कह चुके हैं - 'एक बार घूमते हुए वह निष्पुण्यक दरिद्री राजा के भवन के पास पहुँच गया। उस भवन के द्वार पर स्वकर्मविवर नामक
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